SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षष्ठ अध्ययन : क्षुल्लक निर्गन्थीय] [107 स्वक्रियानुष्ठान के अवसर की आकांक्षा करने वाला और (3) अवसरज्ञ।' मन-वचन-काया से शरीरासक्ति-मन से---यह सतत चिन्तन करना कि हम सुन्दर, बलिष्ठ, रूपवान् कैसे बनें ? बचन से--रसायनादि से सम्बन्धित प्रश्न करते रहना तथा काया से--सदा रसायनादि तथा विगय आदि का सेवन करते रहकर शरीर को बलिष्ठ बनाने का प्रयत्न करना शरीरासक्ति है। सम्वदिसं—यहाँ दिशा शब्द से 18, भाव दिशात्रों का ग्रहण किया गया है-(१) पृथ्वीकाय, (2) अपकाय, (3) तेजस्काय, (4) वायुकाय, (5) मूलबीज, (6) स्कन्धबीज, (7) अग्रबीज, (8) पर्वबीज, (6) द्वीन्द्रिय, (10) त्रीन्द्रिय, (11) चतुरिन्द्रिय, (12) पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक, (13) नारक, (14) देव, (15) समूर्च्छनज, (16) कर्मभूमिज, (17) अकर्मभूमिज, (18) अन्त:पज / पिंडस्स पाणस्स-व्याख्याएँ--(१) साधु के लिए भिक्षादान के प्रसंग में अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य, यों चारों प्रकार के आहार का उल्लेख आता है, अत: चूर्णिकार ने 'पिंड' शब्द को अशन, खाद्य और स्वाय, इन तीनों का और 'पान' शब्द को 'पान' का सूचक माना है / (2) वृत्तिकारों के अनुसार-मुनि के लिए उत्सर्ग रूप में खाद्य और स्वाध का ग्रहण सेवन अयोग्य है, इसलिए पिण्ड अर्थात् प्रोदनादि और पान यानी आयामादि (भोजन और पान) का ही यहाँ ग्रहण किया गया है / 4 सन्निहि-घृत-गुडादि को दूसरे दिन के लिए संग्रह करके रखना सन्निधि है। निशीथचूणि में दूध, दही आदि थोड़े समय के बाद विकृत हो जाने वाले पदार्थों के संग्रह को सन्निधि और घी, तेल आदि चिरकाल तक न बिगड़ने वाले पदार्थों के संग्रह को संचय कहा है / " ____ 'पक्खी पत्तं समादाय निखेक्खो परिव्वए' : दो व्याख्याएँ-(१) चूणि के अनुसार-जैसे पक्षी अपने पत्र-(पंखों) को साथ लिए हुए उड़ता है, उसे पीछे की कोई अपेक्षा–चिन्ता नहीं होती, वैसे 1. (क) उत्तरा. चूणि 115 (ख) बृहद्वत्ति, पत्र 268-269 (ण) उत्त. टीका, अ. रा. कोष, भा. 3, पृ. 273 2. सुखबोधा (प्राचार्य नेमिचन्द्रकृत), पत्र 113-114 3. (क) उत्त. चूणि, पृ. 154 (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र 268 (ग) पुढवि 1 जल 2 जलण 3 वाऊ 7 मूला 5 खंध 6 ग . पोरवीया य 8 / वि ९ति 10 चउ 11 पंचिदिय-तिरि 12 नारया 13 देवसंघाया 14 // 1 // सम्भूच्छिम 15 कम्माकम्मगा य 16-17 मणुमा तहंतरद्दीवा य 18 / भावदिसादिस्सइ जं, संसारी नियमे पाहिं // 2 // ----अ. रा. कोष 31752 4. (क) 'असण-पाण-खाइम-साइमेणं"."" पडिलाभेमाणस्स विहरित्तए।' –उपासकदसा. 2 (ख) उत्तरा. चूणि., पृ. 155 : 'पिण्डग्रहणात् त्रिविधः पाहारः / ' (ग) बृहद्वृत्ति, पत्र 269 : "पिण्डस्य–ोदनादेरन्नस्य, पानस्य च'-पायामादेः खाद्य-स्वाद्यानुपादानं च यते: प्रायस्तत् परिभोगासम्भवात् / (घ) 'खाद्य-स्वाद्ययोरुत्सर्गतो यतीनामयोग्यत्वात् पानभोजनयोग्रहणम् / ' --स्थानांग. 94663, वृत्ति 445 (ङ) सुखबोधा, पत्र 114 / / 5. (क) सन्निधिः-प्रातरिदं भविष्यतीत्याद्यभिसन्धितोऽतिरिक्ताऽन्नादि-स्थापनम / / (ख) निशीथचूणि, उद्देशक 8, सू. 18 (ग) उत्तरा. टीका, अ. रा. कोष, भा. 3, पृ. 752 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy