________________ 106] [उत्तराध्ययनसूत्र [12] जो मन, वचन और काया से शरीर में तथा वर्ण और रूप (ग्रादि विषयों) में सब प्रकार से ग्रासक्त हैं, वे सभी अपने लिए दुःख उत्पन्न करते हैं। 13. आवना दीहमद्धाणं संसारम्मि अणंतए / तम्हा सव्वदिसं पस्स अप्पमत्तो परिश्वए॥ 13. वे (ज्ञानवादी शरीरासक्त पुरुष) इस अनन्त संसार में (विभिन्न भवभ्रमण रूप) दीर्घ पथ को अपनाए हए हैं। इसलिए (साधक) सब (भाव-) दिशाओं (जीवों के उत्पत्तिस्थानों) को देख कर अप्रमत्त होकर विचरण करे। 14. बहिया उड्ढमादाय नावकंखे कयाइ वि। पुवकम्म-खयट्ठाए इमं देहं समुद्धरे // [14] (वह संसार से) ऊर्ध्व (मोक्ष का लक्ष्य) रख कर चलने वाला कदापि बाह्य (विषयों) की आकांक्षा न करे / (साधक) पूर्वकृतकों के क्षय के लिए ही इस देह को धारण करे। 15. विविच्च कम्मुणो हेउं कालकंखी परिव्वए। मायं पिंडस्स पाणस्स कडं लद्ध ण भक्खए / [15] अवसरज्ञ (कालकांक्षी) साधक कर्मों के (मिथ्यात्व, अविरति आदि) हेतुओं को (आत्मा से) पृथक् करके (संयममार्ग में) विचरण करे / गृहस्थ के द्वारा स्वयं के लिए निष्पन्न प्रहार और पानी (संयमनिर्वाह के लिए आवश्यकतानुसार उचित) मात्रा में प्राप्त करके सेवन करे / 16. सन्निहिं च न कुव्वेज्जा लेवमायाए संजए। पक्खी पत्तं समादाय निरवेक्खो परिव्वए / [16] संयमी साधु लेशमात्र भी संचय न करे-(बासी न रखे); पक्षी के समान संग्रहनिरपेक्ष रहता हुअा मुनि पात्र लेकर भिक्षाटन करे / 17. एसणासमिओ लज्जू गामे अणियओ चरे। अप्पमत्तो पमतेहिं पिंडवायं गवेसए / [17] एषणासमिति के उपयोग में तत्पर (निर्दोष आहार-गवेषक) लज्जावान् (संयमो) साधु गाँवों (नगरों आदि) में अनियत (नियतनिवास रहित) होकर विचरण करे। अप्रमादी रहकर वह गृहस्थों (--विषयादिसेवनासक्त होने से प्रमत्तों) से (निदोष) पिण्डपात (भिक्षा) की गवेषणा करे / विवेचन-'बहिया उड्ढं च' : दो व्याख्याएँ-(१) 'देह से ऊर्ध्व---परे कोई प्रात्मा नहीं है, देह ही आत्मा है' इस चार्वाकमत के निराकरण के लिए शास्त्रकार का कथन है—देह से ऊर्ध्व-परे प्रात्मा है, उसको, (2) संसार से बहिर्भूत और सबसे ऊर्ध्ववर्ती लोकाग्रस्थान = मोक्ष को।' कालखी-तीन अर्थ-(१) चूणि के अनुसार-जब तक आयुष्य है तब तक पण्डितमरण के काल की आकांक्षा करने वाला--भावार्थ-आजीवन संयम की इच्छा करने वाला, (2) काल - ... ... .- -... -.. 1. (क) उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 155 (ख) बृहद्वृत्ति पत्र 268 (ग) सुखबोधा, पत्र 114 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org