________________ षष्ठ अध्ययन : क्षल्लक निर्ग्रन्थीय] [105 10. भणन्ता अकरेन्ता य बन्ध-मोक्खपइण्णिणो। वाया-विरियमेत्तेण समासासेन्ति अप्पयं // [10] जो बन्ध और मोक्ष के सिद्धान्तों की स्थापना (प्रतिज्ञा) तो करते हैं, (तथा ज्ञान से ही मोक्ष होता है, इस प्रकार से) कहते बहुत कुछ हैं, तदनुसार करते कुछ नहीं हैं, वे (ज्ञानवादी) केवल वाणी की वीरता से अपने आपको (झूठा) अाश्वासन देते रहते हैं / 11. न चित्ता तायए भासा कओ विज्जाणुसासणं ? विसन्ना पाव-कम्मेहि बाला पंडियमाणिणो // [11] विभिन्न भाषाएँ (पापों या दुःखों से मनुष्य की) रक्षा नहीं करतीं; (फिर व्याकरणन्याय-मीमांसा [पादि) विद्याओं का अनुशासन (शिक्षण) कहाँ सुरक्षा दे सकता है? जो इन्हें संरक्षक (त्राता) मानते हैं, वे अपने आपको पण्डित मानने वाले (पण्डितमानी) अज्ञानी (अतत्त्वज्ञ) जन पापकर्मरूपी कीचड़ में (विविध प्रकार से) फंसे हुए हैं। विवेचन–अविद्याजनित भ्रान्त मान्यताएँ—प्रस्तुत तीन गाथानों में उस युग के दार्शनिकों की भ्रान्त मान्यताएँ प्रस्तुत करके शास्त्रकार ने उनका खण्डन किया है-(१) एकान्त ज्ञान से ही मोक्ष (सर्व दुःखमुक्ति) हो सकता है, क्रिया या आचरण की कोई आवश्यकता नहीं, (2) लच्छेदार भाषा में अपने सिद्धान्तों को प्रस्तुत कर देने मात्र से कल्याण हो जाता है, (3) विविध भाषाएँ सीखकर अपने-अपने धर्म के शास्त्रों को उसकी मूल-भाषा में उच्चारण करने मात्र से अथवा विविध शास्त्रों को सीख लेने-रट लेने मात्र से पापों या दुःखों से रक्षा हो जाएगी। परन्तु भगवान् ने इन तीनों भ्रान्त एवं अविद्याजनित मान्यताओं का खण्डन किया है। सांख्य ग्रादि का एकान्त ज्ञानवाद है-- पंचविंशतितत्त्वज्ञो, यत्रकुत्राश्रमे रतः / शिखी मुण्डी जटी वाऽपि मुच्यते नात्र संशयः / / अर्थात् 'शिखाधारी, मुण्डितशिर, जटाधारी हो अथवा जिस किसी भी आश्रम में रत व्यक्ति सिर्फ 25 तत्त्वों का ज्ञाता हो जाए तो निःसंदेह वह मुक्त हो जाता है / आयरियं-तीन रूप-तीन अर्थ-(१) चणि में आचरित अर्थात---आचार, (2) बहदवत्ति में प्रार्य रूप मानकर अर्थ किया गया है और (3) सुखबोधा में प्राचारिक रूप मानकर अर्थ किया है— अपने-अपने प्राचार में होने वाला अनुष्ठान / विविध प्रमादों से बचकर अप्रमत्त रहने की प्रेरणा 12. जे केई सरीरे सत्ता वण्णे रूवे य सव्वसो। मणसा कायवक्केणं सवे ते दुक्खसंभवा // 1 उत्तरा. टीका, अ. 6, अ. रा. कोष 31751 2. सांख्यदर्शन, सांख्यतत्त्वकौमुदी 3. (क) उत्तराध्ययनचुणि, पृ. 152; 'प्राचारे निविष्टं चरित-आचरणीयं वा' (ख) वृहद्वत्ति, पत्र 266 (ग) आचारिक–निज-निजाऽचारभवमनुष्ठानम्। -सुखबोधा, पत्र 113 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org