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________________ 102] [उसराध्ययनसूत्र 7. अज्झत्थं सम्बओ सव्वं दिस्स पाणे पियायए। न हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उबरए / / [] सवको सब प्रकार से अध्यात्म-(सुख) इष्ट है, सभी प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है; यह भय और वैर (द्वेष) उपरत (-निवृत्त) साधक किसी भी प्राणी के प्राणों का हनन न करे। 8. आयाणं नरयं दिस्स नायएज्ज तणामवि / दो गुछी अप्पणो पाए दिन्नं भुजेज्ज भोयणं // 8. 'आदान (धन-धान्यादि का परिग्रह, अथवा अदत्तादान) नरक (नरक हेतु) है, यह जान-देखकर (बिना दिया हुआ) एक तृण भी (मुनि) ग्रहण न करे / प्रात्म-जुगुप्सक (देहनिन्दक) मुनि गृहस्थों द्वारा अपने पात्र में दिया हुआ भोजन ही करे / विवेचन-पासजाईपहे : दो रूप--दो व्याख्याएँ-(१) चूणि में 'पश्य जातिपथान रूप मान कर 'पश्य' का अर्थ 'देख' और 'जातिपथान' का अयं-चौरासी लाख जीवयोनियों को किया गया है, (2) बृहद्वत्ति में—'पाशजातिपथान् रूप मान कर पाश का अर्थ—'स्त्री-पुत्रादि का मोहजनित सम्बन्ध' है, जो कर्म बन्धनकारक होने से जातिपथ हैं, अर्थात् एकेन्द्रियादि जातियों में ले जाने वाले मार्ग हैं। इसका फलितार्थ है एकेन्द्रियादि जातियों में ले जाने वाले स्त्री-पुत्रादि के सम्बन्ध।" सप्पणा सच्चेमेसेज्जा—'अप्पणा' से शास्त्रकार का तात्पर्य है, विद्यावान् साधक स्वयं सत्य की खोज करे / अर्थात्-वह किसी दूसरे के उपदेश से, बहकाने, दवाने से, लज्जा एवं भय से अथवा गतानुगतिक रूप से सत्य की प्राप्ति नहीं कर सकता / सत्य की प्राप्ति के लिए वस्तुतत्त्वज्ञ विचारक साधक को स्वयं अन्तर की गहराई में पैठकर चिन्तन करना आवश्यक है। सत्य का अर्थ है जो सत् अर्थात् प्राणिमात्र के लिए हितकर सम्यक् रक्षण, प्ररूपणादि से कल्याणकर हो / यथार्थ ज्ञान और संयम प्राणिमात्र के लिए हितकर होते हैं।' निष्कर्ष प्रस्तुत अध्ययन का नाम क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय है. इसलिए निर्ग्रन्थ वन जाने पर उसे अविद्या के विविध रूपों से दूर रहना चाहिए और स्वयं विद्यावान् (सम्यग्ज्ञानी-वस्तुतत्त्वज्ञ) बनकर अपनी आत्मा और शरीर के आसपास लगे हुए अविद्याजनित सम्बन्धों से दूर रहकर स्वयं समीक्षा और सत्य की खोज करनी चाहिए / अन्यथा वह जिन स्त्रीपुत्रादिजनित सम्बन्धों का त्याग कर चुका है, उन्हें अविद्यावश पुन: अपना लेगा तो पुनः उसे जन्म-मरण के चक्र में पड़ना होगा। 1. (क) जायते इतिजाती, जातीनां पंथा जातिपंथा:- चुलसोतिखूल लोए जोणीणं पगृहमयमहम्साई। --उत्तरा. चूणि पृ. 189 (ख) पाशा-अत्यन्त पारवश्य हेतवः, कलत्रादिसम्बन्धास्ते एव तीव्रमोहोदयादि हेतुतया जातीनां एकेन्द्रियादिजातीनां पन्थान: ...तत्प्रापकत्वान्मार्गा:, पाशाजातिपथाः, तान् / बृहद्वति, पत्र 264 1. (क) उत्तरा. टीका, अ.भि.रा.कोप भा. 3, पृ. 750 (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र 264 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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