________________ पष्ठ अध्ययन : क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय] [101 अध्यात्मविद्यारहित पुरुष, विशेषतः निर्ग्रन्थ अनन्त संमार में जन्म-जरा, मृत्यु, व्याधि-प्राधि आदि के कारण दुःखी होता है।' सत्यदृष्टि (विद्या) से अविद्या के विविध रूपों को त्यागने का उपदेश 2. समिक्ख पंडिए तम्हा पासजाईपहे बहू / अप्पणा सच्चमेसेज्जा मेत्ति भूएसु कप्पए। [2] इसलिए साधक पण्डित (विद्यावान) बनकर बहत-से पाशों (बन्धनों) और जातिपथों (एकेन्द्रियादि में जन्ममरण के मोहजनित कारणों-स्रोतों) की समीक्षा करके स्वयं सत्य का अन्वेषण करें और विश्व के सभी प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव का संकल्प करें। 3. माया पिया एहसा भाया भज्जा पुत्ता य ओरसा / नालं ते मम ताणाय लुप्पन्तस्स सकम्मुणा // [3] (फिर सत्यद्रष्टा पण्डित यह विचार करे कि) अपने कृतकर्मो से लुप्त (पीड़ित) होते समय माता-पिता, पुत्रवधु , भाई, पत्नी तथा औरस (आत्मज) पुत्र ये सब (स्वकर्म-समुद्भूत दुःखों से) मेरी रक्षा करने में समर्थ नहीं हो सकते। 4. एयमझें सपेहाए पासे समियदसणे / छिन्द गेहि सिणेहं च न कंखे पुब्बसंथवं / / [4] सम्यग्दर्शन-युक्त साधक अपनी प्रेक्षा (स्वतंत्र बुद्धि) से इस अर्थ (उपर्युक्त तथ्य) को देखे (तटस्थदृष्टा बनकर विचारे) (तथा अविद्याजनित) गृद्धि (आसक्ति) और स्नेह का छेदन करे / (किसी के साथ) पूर्व परिचय की आकांक्षा न रखता हुआ ममत्वभाव का त्याग कर दे / 5. गवासं मणिकुडलं पसवो दासपोरुसं / सम्वमेयं चइत्ताणं कामरूबी भविस्ससि / / [5] गौ (गाय-बैल आदि), अश्व, और मणिकुण्डल, पशु, दास और (अन्य सहयोगी या आश्रित) पुरुष-समूह, इन सब (पर अविद्याजनित ममत्व) का परित्याग करने पर हो (हे साधक!) नु काम-रूपी (इच्छानुसार रूप-धारक) होगा / 5. थावरं जंगमं चेव धणं धण्णं उवक्खरं। पच्चमाणस्स कम्मेहि नालं दुक्खाउ मोयणे / [6] अपने कर्मों से दुःख पाते (पचते) हुए जीव को स्थावर (अचल) और जंगम (चल) सम्पत्ति, धन, धान्य, उपस्कर (गृहोपकरण-साधन) अादि सब पदार्थ भो (अविद्योपार्जित कर्मजनित) दुःख से मुक्त करने में समर्थ नहीं होते / * 1. उत्तराध्ययन, कमलसंयमी टीका, अ. रा. कोप भा. 3 पृ. 750 * यह गाथा चूणि एवं टीका में व्याख्यात नहीं है, इसलिए प्रक्षिप्त प्रतीत होती है। –सं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org