________________ छ?ज्झयणं : षष्ठ अध्ययन खुड्डागनियं ठिज्ज : क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय अविद्या : दुःखजननी और अनन्तसंसार भ्रमणकारिणी 1. जावन्तऽविज्जापुरिसा सव्वे ते दुक्खसंभवा / लुप्पन्ति बहुसो मूढा संसारंमि अणन्तए / 1] जितने भी अविद्यावान पुरुष हैं, वे सब (अपने लिए) दुःखों के उत्पादक हैं। (अविद्या के कारण) मूढ़ बने हुए वे (सब) अनन्त संसार में बार-बार (प्राधि-व्याधि-वियोगादि-दुःखों से) लुप्त (पीड़ित) होते हैं। विवेचन-अविज्जापुरिसा-अविद्यापुरुषा:-अविद्यावान् पुरुष / तीन व्याख्याएँ---(१) जो कुत्सित ज्ञान युक्त हों, (जिन का चित्त मिथ्यात्व से ग्रस्त हो) वे अविद्यपुरुष हैं / (2) जिनमें तत्त्वज्ञानात्मिका विद्या न हो, वे अविद्य हैं। अविद्या का अर्थ यहाँ मिथ्यात्व से अभिभूत कुत्सित ज्ञान है / अतः अविद्याप्रधान पुरुष-- अविद्यापुरुष हैं / (3) अथवा विद्या शब्द प्रचुर श्रुतज्ञान के अर्थ में है। जिनमें विद्या न हो, वे अविद्यापुरुष हैं। इस दृष्टि से अविद्या का अर्थ सर्वथा ज्ञानशुन किन्तु प्रभूत श्रुतज्ञान (तत्त्वज्ञान) का अभाव है, क्योंकि कोई भी जीव सर्वथा ज्ञानशून्य तो होता ही नहीं, अन्यथा जीव और अजीव में कोई भी अन्तर न रहता / ' दुक्खसंभवा-जिनमें दुःखों का सम्भव---उत्पत्ति हो, वे दुःख सम्भव हैं, अर्थात् दुःखभाजन होते हैं / उदाहरण-एक भाग्यहीन दरिद्र धनोपार्जन के लिए परदेश गया। वहाँ उसे कुछ भी द्रव्य प्राप्त न हुआ। वह वापिस स्वदेश लौट रहा था। रास्ते में एक गांव के बाहर शून्य देवालय में रात्रिविश्राम के लिए ठहरा / संयोगवश वहाँ एक विद्यासिद्ध पुरुष मिला। उसके पास कामकुम्भ था, जिसके प्रताप से वह मनचाही वस्तु प्राप्त कर लेता था। दरिद्र ने उसकी सेवा की। उसने सेवा से प्रसन्न होकर कहा---'तुझे मंत्रित कामकुभ द्या कामकुम्भ प्राप्त करने की विद्या दू?' विद्यासाधना में कायर दरिद्र ने कामकुम्भ ही मांग लिया। कामकुम्भ पाकर वह मनचाही वस्तु पाकर भोगासक्त हो गया। एक दिन मद्यपान से उन्मत्त होकर वह सिर पर कामकुम्भ रखकर नाचने लगा। जरा-सी असावधानी से कामकुम्भ नीचे गिर कर टुकड़े-टुकड़े हो गया / उसका सब वैभव नष्ट हो गया, पुन दरिद्र हो गया / वह पश्चात्ताप करने लगा-'यदि मैंने विद्या सीख ली होती तो मैं दूसरा कामकुम्भ बनाकर सुखी हो जाता।' परन्तु अब क्या हो? जैसे विद्यारहित वह दरिद्र दुःखी हुआ, वैसे ही 1. (क) उत्तरा. टीका, अभिधान राजेन्द्र कोष, भा. 3. पृ. 750, (ख) बृहवृत्ति, पत्र 262 . 2. उत्तराध्ययन टीका, अभि. रा. कोप, भा., 3 पृ. 750 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org