________________ छठा अध्ययन : अध्ययन-सार] उसका पूर्वाश्रय का लम्बा-चौड़ा परिवार, धन, धान्य, धाम, रत्न, आभूषण, चल-अचल सम्पत्ति आदि दुःख या पापकर्मों के फल से नहीं बचा सकते / जो ज्ञान केवल ग्रन्थों तक ही सीमित है, बन्धनकारक है, भारभूत हे ! इसीलिए इस अध्ययन में सर्वप्रथम अविद्या को 'ग्रन्थ' का मूल स्रोत मान कर उसको समस्त दुःखों एवं पायों की जड़ बताया है और उसके कारण ही जन्ममरण की परम्परा से मुक्त होने के बदले साधक जन्ममरणरूप अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है, पीड़ित होता है। पातंजल योगदर्शन में भी अविद्या को संसारजन्य दुःखों का मुख्य हेतु बताया है, क्योंकि अविद्या (मिथ्याज्ञान) के कारण सारी ही वस्तुएँ उलटे रूप में प्रतीत होती हैं। जो बन्धन दुःख, प्रत्राण, अशरण, असरक्षा के कारण हैं, उन्हें अविद्यावश व्यक्ति मुक्ति, सख, बाण, शरण एवं सुरक्षा के कारण समझता है। इसीलिए यहाँ साधक को विद्यावान्, सम्यग्द्रष्टा एवं वस्तुतत्त्वज्ञाता बनकर अविद्याजनित परिणामों, बन्धनों एवं जातिपथों की समीक्षा एवं प्रेक्षा करके अपने पारिवारिक जन त्राण-शरणरूप हैं, धनधान्य, दास प्रादि सब पापकर्म से मुक्त कर सकते हैं, इन अविद्याजनित मिथ्यामान्यताओं से बचने का निर्देश किया गया।' * तत्पश्चात् सत्यदृष्टि से प्रात्मौपम्य एवं मैत्रीभाव से समस्त प्राणियों को देखकर हिंसा, अदत्ता दान, परिग्रह अादि ग्रन्थों से दूर रहने का छठी, सातवीं गाथा में निर्देश किया गया है। * 8-6-10 वी गाथानों में आचरणशून्य ज्ञानवाद, अक्रियावाद, भाषावाद, विद्यावाद आदि अविद्याजनित मिथ्या मान्यताओं को ग्रन्थ (वन्धनरूप) बताकर निर्ग्रन्थ को उनसे बचने का संकेत किया गया है। * 11 वी से 16 वीं गाथा तक शरीरासक्ति, विषयाकांक्षा, आवश्यकता से अधिक भक्तपान का ग्रहण-सेवन, संग्रह आदि एवं नियतविहार, प्राचारमर्यादा का अतिक्रमण आदि प्रमादों को 'ग्रन्थ' के रूप में बताकर निर्ग्रन्थ को उनसे वचने तथा अप्रमत्त रहने का निर्देश किया गया है। * कुल मिलाकर 16 गाथाओं में प्रात्मलक्षी या मोक्षलक्षी निर्ग्रन्थ को सदैव इन ग्रन्थों से दूर रहकर अप्रमादपूर्वक निर्ग्रन्थाचार के पालन की प्रेरणा दी गई है। 17 वी गाथा में इन निर्ग्रन्थसूत्रों के प्रज्ञापक के रूप में भगवान् महावीर का सविशेषण उल्लेख किया गया है / 1. (क) उत्तरा., अ. 6, गा. 1 से 5 (ख) Ignorance is the root of all evils. .-English proverb. (ग) 'तस्य हेतुरविद्या' / अनित्याशुचिदुःखानात्ममु नित्य-शुचि-सुखात्मख्यातिरविद्या।' -पातंजल योगदर्शन 14-5 2. (क) उत्तरा., अ. 6, गा. 6 से 7 (ख) बही, गा. 8-9-10 (ग) वही, गा. 11 से 16 तक (घ) उत्तरा., अ. 6, गा, 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org