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________________ षष्ठ अध्ययन : क्षुल्लक निग्रन्थीय] [103 अतः अत्र उसे केवल एक कुटुम्ब के साथ मैत्रीभाव न रखकर विश्व के सभी प्राणियों के साथ मैत्रीभाव रखना चाहिए / यही सत्यान्वेषण का नवनीत है / ' सपेहाए-दो अर्थ---(१) सम्यक् बुद्धि से, (2) अपनी बुद्धि से / पासे --दो अर्थ--(१) पश्येत्---देखे--अवधारण करे, (2) पाश - बन्धन / समियदंसणे-दो रूप----दो अर्थ-(१) शमितदर्शन-जिसका मिथ्यादर्शन शमित हो गया हो, (2) समितदर्शन—जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया हो। दोनों का फलितार्थ है--सम्यग्दष्टिसम्पन्न माधक / यहाँ 'बनकर' इस पूर्वकालिक क्रिया का अध्याहार लेना चाहिए। गेहि सिणेहं च-दो अर्थ--(१) वृहद्वृत्ति के अनुसार-गृद्धि का अर्थ-रसलम्पटता और स्नेह का अर्थ है-पुत्र-स्त्री आदि के प्रति राग। (2) चूर्णिकार के अनुसार--गृद्धि का अर्थ हैद्रव्य, गाय, भैंस, बकरी, भेड़, धन, धान्य आदि में प्रासक्ति और स्नेह का अर्थ है--बन्धु-बान्धवों के प्रति ममत्व / प्रस्तुत गाथा (4) में साधक को विद्या (वस्तुतत्त्वज्ञान) के प्रकाश में आसक्ति, ममत्व, राग, मोह, पूर्वसंस्तव आदि अविद्याजनित सम्बन्धों को मन से भी त्याग देने चाहिए / यही नथ्य पाँचवीं गाथा में झलकता है। कामरूवी-व्याख्या स्वेच्छा से मनचाहा रूप धारण करने वाला / सांसारिक भोग्य पदार्थों के प्रति ममत्वत्याग करने पर इहलोक में वैक्रियल ब्धिकारक अर्थात् अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व प्रादि अष्टसिद्धियों का स्वामी होगा तथा निर. निचार संयम पालन करने से परलोक में-देवभव में वैक्रियादिलब्धिमान होगा। गौ-अश्व ग्रादि पदार्थों का त्याग क्यों किया जाए? इसका समाधान अगली गाथा में दिया गया है—'नालं दुक्खाउ मोयणे ये दुःखों से मुक्त कराने में समर्थ नहीं हैं / " थावरं जंगम स्थावर का अर्थ है अचल---गृह ग्रादि साधन तथा जंगम का अर्थ है-चल, पुत्र, मित्र, भृत्य ग्रादि पूर्वाश्रय स्नेहीजन / पियायए : तीन रूप-तीन अर्थ---(१) प्रियान्मान:-जिन्हें अपनी आत्मा----जीवन प्रिय है, (2) प्रियदयाः-जैसे सभी को अपना सुख प्रिय है, वैसे सभी को अपनी दया--रक्षण प्रिय है। (3) पियायए—प्रियायते क्रिया= चाहते हैं, सत्कार करते हैं, उपासना करते हैं।' 1. उत्तराध्ययन मूल पाठ अ.६, गा.२ से 6 तक 2. (क) उत्त. चूणि, पृ. 150 (ख) वृहद्वृत्ति, पत्र 264 (ग) सुखबोधा पत्र 212 3. बृहद्वृत्ति, पत्र 364 / / 4. (क) उत्तरा. चूणि, पृ. 151 (ख) उत्तरा. टीका, अ. रा. कोष, भा. 3, पृ. 751 5. उत्तरा. टोका, अ. रा. कोष, भा. 3, पृ. 751 6. वही, अ. रा. को. पृ. 751 3. (क) उत्तरा. चूणि, पृ. 151 (ख) बृहद्वत्ति, पत्र 265 (ग) मुखबोधा पत्र 112 (घ) उत्तरा. (मरपेंटियर कृत व्याख्या) पृ. 303 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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