________________ [उत्तराध्ययनसूत्र शोक एवं परिवारादि में मोहग्रस्त होने के कारण विलाप एवं रुदन करते हैं, वैसे धर्मोपार्जन किये हुए संयमी, शीलवान् धर्मात्मा पुरुष धर्मफल को जानने के कारण नहीं घबराते, न ही भय, चिन्ता, शोक, विलाप या रुदन करते हैं।' सकाममरण प्राप्त करने का उपदेश और उपाय 30. तुलिया विसेसमादाय दयाधम्मस्स खन्तिए / विप्पसीएज्ज मेहावी तहा-भूएण अप्पणा // [30] मेधावी साधक पहले अपने आपका परीक्षण करके बालमरण से पण्डितमरण की विशेषता जान कर विशिष्ट सकाममरण को स्वीकार करे तथा दयाप्रधानधर्म-(दशबिध यतिधर्म)सम्बन्धी क्षमा (उपलक्षण से मार्दवादि) से और तथाभूत (उपशान्त-कपाय-मोहादिरूप) प्रात्मा से प्रसन्न रहे (–मरणकाल में उद्विग्न न बने)। 31. तओ काले अभिप्पए सड्ढी तालिसमन्तिए। विणएज्ज लोम-हरिसं भेयं देहस्स कंखए / [31] उसके पश्चात् जब मृत्युकाल निकट पाए, तब भिक्षु ने गुरु के समीप जैसी श्रद्धा से प्रव्रज्या या संलेखना ग्रहण की थी, वैसी ही श्रद्धावाला रहे और (परीषहोपसर्ग-जनित) रोमांच को दूर करे तथा मरणभय से संत्रस्त न होकर शान्ति मे शरीर के नाश (भेद) की प्रतीक्षा करे। (अर्थात् देह की अब सार-संभाल न करे / ) 32. अह कालंमि संपत्ते आघायाय समुस्सयं / सकाम-मरणं मरई तिहमन्नयरं मणी / / _त्ति बेमि। [32] मृत्यु का समय पाने पर भक्तपरिज्ञा, इंगिनी अथवा पादोगमन, इन तीनों में किसी एक को स्वीकार करके मुनि (संल्लेखना-समाधि-पूर्वक) (अन्दर से कार्मणगरीर और बाहर से औदारिक) शरीर का त्याग करता हुआ सकाममरण से मरता है। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन--'तुलिया': दो व्याख्याएँ-(१) अपने आपको तौल कर (अपनी धति, दृढ़ता, उत्साह, शक्ति आदि की परीक्षा करके), (2) बालमरण और पण्डितमरण दोनों की तुलना करके / 'विसेसमादाय': दो व्याख्याएँ-(१) विशेष-भक्तपरिज्ञा प्रादि तीन समाधिमरण के भेदों में से किसी एक मरणविशेष को स्वीकार करके, (2) बालमरण से पण्डितमरण को विशिष्ट जान कर।' तहाभूएण अप्पणा विष्पसीएज्जः दो व्याख्याएँ-(१) तथाभूत प्रात्मा से- मृत्यु के पूर्व अनाकुलचित्त था, मरणकाल में भी उसी रूप में अवस्थित प्रात्मा से, (2) तथाभूत उपशालमोहोदयरूप या निष्कषाय प्रात्मा से। विप्रसीदेत--(१) विशेष रूप से प्रसन्न रहे, मृत्यु से उद्विग्न न हो, (2) 1. सुखबोधा पत्र 108, 'सुगहियतवपन्थयणा, विसुद्धसम्मत्तनाणचारिता / मरणं ऊसवभूयं, मन्नति समाहियप्पाणो // ' 2. बृहद्वत्ति, पत्र 254 3. वही, पत्र 258 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org