________________ पंचम अध्ययन : अकाममरणीय] [97 कषायपंक दूर होने से स्वच्छ रहे, किन्तु बारह वर्ष तक की सलखना का तथाविध तप करके अपनी अंगुली तोड़ कर गुरु को बताने वाले तपस्वी की तरह कषायकलुषता धारण किया हुआ न रहे / ' आघायाय समुस्सयंः दो रूप, दो अर्थ—(१) प्राघातयन् समुच्छ्यम्---बाह्य और आन्तरिकशरीर का नाश (त्याग) करता हुआ, (2) आधाताय समुच्छ्यस्य-शरीर के विनाश (त्याग) का अवसर प्राने पर / 'तिहमन्नयरं मुणी' की व्याख्या-तीन प्रकार के अनशनों (भक्तपरिज्ञा, इंगिनी और पादोपगमन) में से किसी एक के द्वारा देह त्याग करे। भक्तपरिज्ञा-चतुर्विध आहार तथा बाह्याभ्यन्तर उपधि का यावज्जीवन प्रत्याख्यानरूप अनशन, इंगिनी-अनशनकर्ता का निश्चित स्थान से बाहर न जाना, पादोपगमन–अनशनकर्ता का कटे वृक्ष की भांति स्थिर रहना, शरीर की सार-संभाल न करना / प्रकाममरणीय : पंचम अध्ययन समाप्त / / 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 254 2. वही, पत्र 254 3. (क) वही, पत्र 254 (ख) उत्त. नियुक्ति, गा. 225 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org