________________ पंचम अध्ययन : अकाममरणीय] [95 करना अनिवार्य होता है तथा एक अहोरात्रि (आठ पहर) तक आत्मचिन्तन, स्वाध्याय, धर्मध्यान एवं सावधप्रवृत्तियों के त्याग में बिताना होता है / भगवतीसूत्र में उल्लिखित शंख श्रावक के वर्णन से अशन-पान का त्याग किये विना भी पोषध किया जाता था, जिसे देशपोषध (या दयाछकायव्रत) कहते हैं / वसुनन्दिश्रावकाचार के अनुसार-दिगम्बर परम्परा में प्रोषध के तीन प्रकार बताये हैं--(१) उत्तम प्रोषध--चविध आहारत्याग, (2) मध्यम प्रोषध-त्रिविध प्रा और (3) जघन्य प्रोषेध-प्रायम्बिल (आचाम्ल), निविकृतिक, एक स्थान और एक भक्त / वौद्ध साहित्य में आर्य-उपोसथ का स्वरूप भी लगभग जैन (देश-पोषध) जैसा ही है / पोषध का शब्दशः अर्थ होता है-धर्म के पोष (पुष्टि) को धारण करने वाला। छविपवाओ में 'छविपर्व' का तात्पर्य छवि का अर्थ है-चमड़ी और पर्व का अर्थ हैशरीर के संधिस्थल-घुटना, कोहनी अादि / इसका तात्पर्य है---मानवीय औदारिकशरीर (हड्डी, चमड़ी आदि स्थूल पदार्थों से बना शरीर।२ गच्छे जक्खसलोगयं—यक्षसलोकतां-यक्ष अर्थात् देव, देवों के समान लोक-स्थान को प्राप्त करता है। प्राचार्य सायण और शंकराचार्य ने 'सलोकता' का अर्थ-'समान लोक या एक स्थान में बसना–समान लोक में निवास करना' किया है।' विमोहाइं-मोहरहित / मोह के दो अर्थ-द्रव्यमोह–अन्धकार, भावमोह-मिथ्यादर्शन / ऊपर के देवलोकों में ये दोनों मोह नहीं होते। इसलिए वे आवास विमोह कहलाते हैं / अथवा शान्त्याचार्य ने यह अर्थ भी किया है-वेदादिमोहनीय का उदय स्वल्प होने से विमोह की तरह वे विमोह हैं / अहुणोववन्नसंकासा---अभी-अभी उत्पन्न के समान अथवा प्रथम उत्पन्न देव के तुल्य / तात्पर्य यह है कि अनुत्तर देवों में आयुष्यपर्यन्त वर्ण, कान्ति आदि घटते नहीं तथा देवों में औदारिक शरीर की तरह बालक, युवक, वृद्धादि अवस्थाएँ नहीं होती, आयुष्य के अन्त तक वे एक समान अवस्था में रहते हैं। 'संतसंतिमरणते' का तात्पर्य यह है कि अपने जीवन में धर्मोपार्जन नहीं किये हुए अविरत, असंयमी, पापकर्मी जन अन्तिम समय में जैसे मृत्यु का नाम सुनते ही घबराते हैं, अपने पापकृत्यों का स्मरण करके तथा इन पापों के फलस्वरूप न मालूम 'मैं कहाँ जाऊंगा ?' इस प्रकार 1. (क) उत्तरा. चूणि, पृ. 139 (ख) स्थानांग, 3 / 1 / 150, 4 // 3 // 314 (ग) भगवती 1261 (घ) बमुनन्दि थावकाचार, श्लोक 280-294 (ड) अंगुत्तरनिकाय 212-221, पृ. 147 2. (क) छविश्च त्वक, पर्वाणि च जानुकर्परादीनि छविपर्व, तद्योगाद प्रौदारिकशरीरमपि छविपर्व, ततः / --सुख बोधा पत्र 107 (ख) बहद्वत्ति, पत्र 252 3. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 252 (ख) ऐतरेय पारण्यक० 3 / 2 / 1 / 7, पृ. 242-243 'सलोकतांसमानलोकवासित्वमश्नुते / ' (ग) 'सलोकतां समानलोकतां वा एकस्थानत्वम् / ' –बृहदारण्यक उ., पृ. 391 4. (क) बहवत्ति, पत्र 252 5. (क) उत्तरा. चणि, पृ. 180, (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र 252 (ग) सुखबोधा पत्र 108 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org