________________ 94] [उत्तराध्ययनसूब में यह प्रचलित था। मुडिणं का अर्थ जो अपने संन्यासाचार के अनुसार सिर मुंडा कर चोटी कटाते थे, उनके प्राचार के लिए यह संकेत है।' केवल भिक्षाजीविता नरक से नहीं बचा सकती-उदाहरण- राजगृह नगर में एक उद्यान में नागरिकों ने बृहद् भोज किया / एक भिक्षुक नगर में तथा उद्यान में जगह-जगह भिक्षा मांगता फिरा, उसने दीनता भी दिखाई, परन्तु किसी ने कुछ न दिया। अतः उसने वैभारगिरि पर चढ़ कर रोषवश नागरिकों पर शिला गिरा कर उन्हें समाप्त करने का विचार किया. दर्भाग्य से शिला गिरते समय वह स्वयं शिला के नीचे दब गया। वहीं मर कर सातवीं नरक में गया / इसलिए दुःशील को केवल भिक्षाजीवता नरक से नहीं बचा सकती। अगारि-सामाइयंगाईः तीन व्याख्याएँ---यहाँ सामायिक शब्द का अर्थ किया गया हैसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र और समय हो सामायिक है / उसके दो प्रकार हैं-अगारो-सामायिक और अनगार-सामायिक (1) चूर्णिकार के अनुसार-श्रावक के बारहव्रत अगारिसामायिक के बारह अंग हैं, (2) शान्त्याचार्य के अनुसार---निःशंकता, स्वाध्यायकाल में स्वाध्याय और अणुव्रतादि, ये अगारिसामायिक के अंग हैं, (3) विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार---'सम्यक्त्वसामायिक, श्रुतसामायिक, देशव्रतसामायिक और सर्वव्रत (महाव्रत) सामायिक, इन चारों में से प्रथम तीन अगारिसामायिक के अंग हैं। पोसहं : विविधरूप और विभिन्न स्वरूप-(१) श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार—पोषध, प्रोषध, पोषधोपवास, परिपूर्ण पोषध, (2) दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार--प्रोषध, (3) बौद्ध साहित्य के अनुसार-उपोसथ / जैनधर्मानुसार पोषध श्रावक के बारह व्रतों में ग्यारहवाँ व्रत है। जिसे परिपूर्ण पोषध कहा जाता है। श्रावक के लिए महीने में 6 पर्व तिथियों में 6 पोषध करने का विधान है-द्वितीया, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी (पूर्णिमा अथवा अमावस्या)। प्रस्तुत गाथा में कृष्ण और शुक्लपक्ष की अन्तिम तिथि जिसे पक्खी कहते हैं, महीने में ऐसी दो पाक्षिक तिथियों का पोषध न छोड़ने का निर्देश किया है। परिपूर्ण पोषध में-अशनादि चारों आहारों का त्याग, मणि-मुक्ता-स्वर्ण-पाभरण, माला, उबटन, मर्दन, विलेपन आदि शरीरसत्कार का त्याग, अब्रह्मचर्य का त्याग एवं शस्त्र, मूसल आदि व्यवसायादि तथा प्रारंभादि सांसारिक एवं सावध कार्यो का त्याग, 1. (क) चर्मवल्कलची राणि, कूर्चमुण्डशिखाजटाः / न व्यपोहन्ति पापानि, शोधको तु दयादमौ॥ ---सुखवोधा पत्र 127 में उद्धत (ख) न नग्गचरिया न जटा न पंका, नानासका थंडिलसायिका वा। रज्जो च जल्लं उक्कटिकप्पधानं मोधेति मच्च प्रवितिण्णकखं / / -धम्मपद 10113 (ग) 'चोर' वल्कलं-चणि 138 पृ., 'चीराणि चीवराणि'-वृहद्वृत्ति, पत्र 220 / (घ) उत्तराध्ययनचणि, पृ. 138 (ङ) 'संघाटी'-वस्त्रसंहति जनिता ----वृहद्वृत्ति, पत्र 25.0, विशुद्धिमार्ग 112, पृ. 60 (च) मुडिणं ति-यत्र शिखाऽपि स्वसमयतश्छिद्यते, ततः प्राग्वद् मुण्डिकत्वम् / —बृ. व., पत्र 250 2. (क) उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 139 (ख) बृहद्वत्ति, पत्र 251 (ग) विशेषावश्यकभाष्य, गा. 1196 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org