________________ पंचम अध्ययन : अकाममरणीय] शील अर्थात् अनेकविधवत या मत वाले--जैसे कि कई कहते हैं -गृहस्थाश्रम का पालन करना ही महाव्रत है, किसी का कयन-गृहस्थाश्रम से बढ़कर कोई भी धर्म न तो हुग्रा है, न होगा / जो शूरवीर होते हैं, वे हो इसका पालन करते हैं, नपुसक (कायर) लोग पाखण्ड का आश्रय लेते हैं / कुछ लोगों का कहना है--गृहस्थों के सात सौ शिक्षाप्रद व्रत हैं; इत्यादि / (3) शान्त्याचार्य के अनुसार-गृहस्थों के अनेकविध शील अर्थात-अनेकविधवत हैं। अर्थात-देशविरति रूप व्रतों के अनेक भंग होने के कारण गृहस्थव्रतपालन अनेक प्रकार से होता है।' विसमसीला-विषमशीलाः-दो व्याख्याएँ-(१) शान्त्याचार्य के अनुसार भिक्षु भी विषम अर्थात् अति दुर्लक्षता के कारण अति गहन, विसदृशशील यानी प्राचार बाले होते हैं, जैसे कि कई पांच यमों और पांच नियमों को, कई कन्दमूल, फलादि-भक्षण को, कतिपय अात्मतत्त्व-परिज्ञान को ही व्रत मानते हैं / (2) चूर्णिकार के अनुसार भिक्षुओं को विषमशील इसलिए कहा गया है कि तापस, पांडरंग आदि कहकप्रवचनभिक्ष अभ्यदय (ऐहिक उन्नति) की ही कामना करते हैं, जो मोक्षसाधना के लिए उद्यत हुए हैं. वे भी उसे सम्यक् प्रकार से नहीं समझते, वे प्रारम्भ से मोक्ष मानते हैं तथा लोकोत्तर भिक्षु भी सभी निदान, शल्य और अतिचार से रहित नहीं होते, याकांक्षारहित तप करने वाले भी नहीं होते। ___'संति एगेहि...."साहवो संजमुत्तरा' का आशय-इस गाथा का अभिप्राय यह है कि अवती प्रचारित्री या नामधारी भिक्षुओं की अपेक्षा सम्यग्दृष्टियुक्त देशविरत गृहस्थ संयम में श्रेष्ठ होते हैं / किन्तु उन सब देशविरत गृहस्थों की अपेक्षा सर्वविरत भावभिक्षु संयम में श्रेष्ठ होते हैं, क्योंकि उनका सयमव्रत परिपूर्ण है। इसे एक संवाद द्वारा समझाया गया है. एक श्रावक ने साधु से पूछा-- श्रावकों और साधुनों में कितना अन्तर है ? साधु ने कहा-सरसों और मंदरपर्वत जितना ? श्रावक ने फिर पूछा-कुलिंगी (वेषधारी) साधु और श्रावक में क्या अन्तर है ? साधु ने उत्तर दिया-वही, सरसों और मेरुपर्वत जिनता / थावक का इससे समाधान हो गया। 'चीराजिणं........दुस्सीलं परियागतं का तात्पर्य --इस गाथा को उल्लिखित करके शास्त्रकार ने 'गृहस्थ कई भिक्षुओं से संयम में श्रेष्ठ होते हैं' इस वाक्य का समर्थन किया है। इस गाथा में उस यग के विभिन्न धर्मसम्प्रदायों के साध_संन्यासियों, तापसों, परिवाजकों या भिक्षों के द्वारा सुशीलपालन की उपेक्षा करके मात्र विभिन्न बाह्य वेषभूषा से मोक्ष या स्वर्ग प्राप्त हो जाने की मान्यता का खण्डन किया गया है। सम्यक्त्वपूर्वक अतिचार-निदान-शल्यरहित व्रताचरण को ही मुख्यतया सकाममरण के अनन्तर स्वर्ग का अधिकारी माना गया है / 'चीर' के दो अर्थ–चीवर और बल्कल / नगिणिणं का अर्थ चूणिकार ने नग्नता किया है नथा उस युग के कुछ नान-सम्प्रदायों का उल्लेख भी किया है मृगचारिक, उदण्डक और ग्राजीवक / संघाडि-संघाटी—कपड़े के टुकड़े को जोड़ कर बनाया गया साधुओं का एक उपकरण / बौद्धश्रमणों 1. (क) उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 137 (ख) सुखबोधा, पत्र 106 (ग) बृहद्वृत्ति, पत्र 249 2. (क) बृहृवृत्ति, पत्र 249 (ख) उत्तरा. चूणि, पृष्ठ 137 3. वृहद्वृत्ति, पत्र 250 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org