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________________ 92] [उत्तराध्ययनसूत्र [26-27] उपरिवर्ती (अनुत्तरविमानवासी) देवों के आवास (स्वर्ग-स्थान) अनुक्रम से (सौधर्म देवलोक से अनुत्तर-विमान तक उत्तरोत्तर) श्रेष्ठ, एवं (पुरुषवेदादि मोहनीय कर्म क्रमशः अल्प होने से) मोहरहित, धुति (कान्ति) मान्, देवों से परिव्याप्त होते हैं। उनमें रहने वाले देव यशस्वी, दीर्घायु, ऋद्धिमान् (रत्नादि सम्पत्ति से सम्पन्न), अतिदीप्त (समृद्ध), इच्छानुसार रूप धारण करने वाले (वैक्रियशक्ति से सम्पन्न) सदैव अभी-अभी उत्पन्न हुए देवों के समान (भव्य वर्ण-कान्ति युक्त), अनेक सूर्यों के सदृश तेजस्वी होते हैं। 28. ताणि ठाणाणि गच्छन्ति सिक्खित्ता संजमं तवं / भिक्खाए वा गिहत्थे वा जे सन्ति परिनिम्बुडा // [28] भिक्षु हों या गृहस्थ, जो उपशम (शान्ति की साधना) से परिनिर्वृत्त—(उपशान्तकषाय) होते हैं, वे संयम (सत्तरह प्रकार के) और तप (बारह प्रकार के) का पुनः पुन: अभ्यास करके उन (पूर्वोक्त) स्थानों (देव-पावासों) में जाते हैं। 26. तेसि सोच्चा सपुज्जाणं संजयाण वुसीमनो। न संतसन्ति मरणन्ते सोलवन्ता बहुस्सुया / [26] उन सत्पूज्य, संयत और जितेन्द्रिय मुनियों का (पूर्वोक्त स्थानों की प्राप्ति का) वृत्तान्त सुन कर शीलवान् और बहुश्रुत (आगम श्रवण से शुद्ध बुद्धि वाले) साधक मृत्युकाल में भी संत्रस्त (उद्विग्न) नहीं होते। विवेचन ---'बसीमओ' : के पांच रूप : पांच अर्थ-(१) वश्यवन्तः–अात्मा या इन्द्रियाँ जिनके वश में हों, (2) वुसोमन्तः–साधुगुणों से जो बसते हैं --या वासित हैं, (3) वुसीमा-संविग्नसंवेगसम्पन्न, (4) बुसिम-संयमवान् (वुसि संयम का पर्यायावाची होने से), (5) वृषीमान्-कुश आदि-निमित मुनि का पासन जिसके पास हो अथवा वृषीमान्-मुनि या संयमी / ' विप्पसणं-विप्रसन्न : चार अर्थ—(१) मृत्यु के समय कषाय-कालुष्य के मिट जाने से सुप्रसन्न–अकलुष मन वाला, (2) विशेषरूप से या विविध भावनादि के कारण मृत्यु के समय भी मोह-रज हट जाने से अनाकुल चित्त वाला मरण, (3) पाप-पंक के दूर हो जाने से प्रसन्न –अति स्वच्छ-निर्मल---पवित्र (मरण) (4) विप्रसन्न-विशिष्ट चित्तसमाधियुक्त (मरण) / अणाघायं-जिस मृत्यु में किसी प्रकार का आघात, शोक, चिन्ता, अथवा विप्पसण्णामघायं को एक ही समस्त पद (तथा उसका संस्कृत रूप 'विप्रसन्नमनःख्यातम्' मान कर अर्थ किया गया है,कषाय एवं मोहरूप कलुषितता अन्तःकरण (मन) में लेशमात्र भी न होने से जो विप्रसन वीतरागमहामुनि हैं, उउके द्वारा ख्यात–कथित अथवा स्वसंवेदन से प्रसिद्ध / नाणासीला-नानाशीला:-तीन व्याख्याएँ-(१) चूणि के अनुसार-गृहस्थ नाना-विविध शोल-स्वभाव वाले, विविध रुचि और अभिप्रायवाले होते हैं, (2) प्राचार्य नेमिचन्द्र के अनुसार-नाना१. (क) बृहद्वृत्ति, पत्रांक 249, (ख) उत्त. चूणि, पृ. 137, (ग) सूत्रकृतांग 2 / 2 सू.३२"भिसिगं (बृपिक) वा। (घ) सिमंति संयमवान् –सूत्रकृतांग वृत्ति 216 / 14 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 249. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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