________________ पंचम अध्ययन : अकाममरणीय] [91 20. सन्ति एगेहि भिक्खूहि गारत्था संजमुत्तरा। ... गारत्थेहि य सब्वेहि साहवो संजमुत्तरा / / [20] कई भिक्षुओं की अपेक्षा गृहस्थ संयम में श्रेष्ठ होते हैं, किन्तु सभी गृहस्थों से (सर्वविरति चारित्रवान् शुद्धाचारी) साधुगण संयम में श्रेष्ठ हैं। 21. चीराजिणं नगिणिणं जडी-संघाडि-मुण्डिणं / एयाणि वि न तायन्ति दुस्सीलं परियागयं // [21] प्रव्रज्यापर्यायप्राप्त दुःशील (दुराचारी) साधु को चीर ( वल्कल-वस्त्र ) एवं अजिन (मृगछाला आदि चर्म-) धारण, नग्नत्व, जटा-धारण, संघाटी (चिथड़ों से बनी हुई गुदड़ी या उत्तरीय)-धारण, शिरोमुण्डन, ये सब (बाह्यवेष या वाह्याचार) भी (दुर्गतिगमन से) नहीं बचा सकते / 22. पिण्डोलए व दुस्सीले नरगाओ न मुच्चई / भिक्खाए वा गिहत्थे वा सुब्वए कमई दिवं // [22] भिक्षाजीवी साधु भी यदि दुःशील है तो वह नरक से मुक्त नहीं हो सकता / भिक्षु हो या गृहस्थ यदि वह सुव्रती (वतों का निरतिचार पालक) है. तो स्वर्ग प्राप्त करता है। 23. अगारि-सामाइयंगाई सड्डी काएण फासए। पोसहं दुहओ पक्खं एगरायं न हावए // [23] श्रद्धावान् श्रावक गृहस्थ की सामायिक-साधना के सभी अंगों का काया से स्पर्श (-पाचरण) करे। (कृष्ण और शुक्ल) दोनों पक्षों में पौषधव्रत को एक रात्रि के लिए भी न छोड़े। 24. एवं सिक्खा-समावन्ने गिहवासे वि सुव्वए / मुच्चई छवि-पवाओ गच्छे जक्ख-सलोगयं // [24] इस प्रकार शिक्षा (व्रताचरण के अभ्यास) से सम्पन्न सुव्रती गृहवास में रहता हुआ भी मनुष्यसम्बन्धी औदारिक शरीर से मुक्त हो जाता है और देवलोक में जाता है। 25. अह जे संवुडे भिक्खू दोण्हं अन्नयरे सिया। सव-दुक्ख-प्पहोणे वा देवे वावि महडिए / [25] और जो संवृत (पाश्रवद्वारनिरोधक) (भाव-) भिक्षु होता है; वह दोनों में से एक (स्थिति वाला) होता है—या तो वह (सदा के लिए) सर्वदुःखों से रहित-मुक्त अथवा महद्धिक देव होता है। 26. उत्तराई विमोहाइं जुइमन्ताणुपुटवसो। समाइण्णाइं जक्खेहिं प्रावासाई जसंसिणो॥ 27. दोहाउया इड्ढिमन्ता समिद्धा काम-रूविणो / अहुणोववन्न-संकासा भुज्जो अच्चिमालिप्पभा / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org