________________ 90] [उत्तराध्ययनसूत्र है, और बाहर से अपने (स्निग्ध शरीर पर मिट्टी चिपका लेता है / इस प्रकार अन्दर और बाहर दोनों ओर से वह मिट्टी का संचय करता है / ' 'उववाइयं' पद का प्राशय-उववाइयं का अर्थ होता है-'औपपातिक' / जैनदर्शन में तीन प्रकार से प्राणियों की उत्पत्ति (जन्म) बताई गई है–समूर्छन, गर्भ और उपपात / द्वीन्द्रियादि जीव सम्मृच्छिम हैं, पशु-पक्षी आदि गर्भज और नारक तथा देव ग्रौपपातिक होते हैं। गर्भज जीव गर्भ में रहता है. वहाँ तक छेदन-भेदनादि की पीड़ा नहीं होती, किन्तु प्रौपपातिक जीव अन्तर्महर्त भर में पूर्ण शरीर वाले हो जाते हैं, नरक में तो एक अन्तर्मुहूर्त के बाद ही महावेदना का उदय होता है,जिसके कारण निरन्तर दुःख रहता है / कलिणा जिए—एक ही दाव में पराजित / प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार जुए में दो प्रकार के दाव होते थे---कृतदाव और कलिदाव / 'कृत' जीत का दाव और 'कलि' हार का दाव माना जाता था। 'धुत्ते व' का अर्थ--वृत्तिकार इसका संस्कृत रूपान्तर धूर्त करके धूर्त इव द्यूतकार इव (जुअारी की तरह) अर्थ करते हैं / सकाममरण : स्वरूप, अधिकारी, अनधिकारी एवं सकाममरणोत्तर स्थिति 17. एवं अकाम-मरणं बालाणं तु पवेइयं / एत्तो सकाम-मरणं पण्डियाणं सुणेह मे // [17] यह (पूर्वोक्त) बाल जीवों के अकाम-मरण का प्ररूपण किया गया। अब यहाँ से आगे पण्डितों के सकाम-मरण (का वर्णन) मुझ से सुनो। 18. मरणं पि सपुण्णाणं जहा मेयमणुस्सुयं / विप्पसण्णमणाघायं संजयाणं सोमप्रो॥ [18] जैसा कि मैंने परम्परा से सुना है--संयत, जितेन्द्रिय एवं पुग्यशाली प्रात्मानों का मरण अतिप्रसन्न (अनाकुलचित्त) और आघात-रहित होता है। 19. न इमं सम्बेसु भिक्खूसु न इमं सव्वेसुऽगारिसु / नाणा-सीला अगारत्था विसम-सीला य भिक्खुणो॥ |16] यह (सकाममरण) न तो सभी भिक्षुत्रों को प्राप्त होता है और न सभी गृहस्थों को, (क्योंकि) गृहस्थ नाना प्रकार के शीलों (वत-नियमों) से सम्पन्न होते हैं, जबकि बहुत-से भिक्षु भी विषम (विकृत-सनिदान सातिचार) शील वाले होते हैं। 1. वृहद्वृत्ति, पत्र 246 2. 'सम्मूच्र्छन-गर्भोपपाता जन्म-तत्त्वार्थसूत्र 2632 3. 'उपपातात्मजातमौपपातिकम, न तत्र गर्भव्युत्क्रान्तिरस्ति, येन गर्भकालान्तरितं तत्ररकदुःखं स्यात, ___ते हि उत्पन्नमात्रा एव नरकवेदनाभिरभिभूयन्ते' उत्त. चूणि, पृ. 135 4, (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 248 (ख) मुखबोधा पत्र 105 5. वृहद्धृत्ति पत्र 248 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org