SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन // देवेन्द्रमुनि शास्त्री वर्तमान में उपलब्ध जैन मागम-साहित्य को अंग, उपांग, मूल और छेद इन चार वर्गों में विभक्त किया गया है। इस वर्गीकरण का उल्लेख समवायांग और नन्दीसूत्र में नहीं है। तत्त्वार्थभाध्य में सर्वप्रथम अंग के साथ उपांग शब्द का प्रयोग प्राचार्य उमास्वाति ने किया है। उसके पश्चात् सुखबोधा-समाचारी में अंगबाह्य के अर्थ में 'उपांग' शब्द का प्रयोग प्राचार्य श्रीचन्द्र ने किया / 2 जिस अंग का जो उपांग है, उसका निर्देश "विधिमार्गप्रपा" ग्रन्थ में प्राचार्य जिनप्रभ ने किया है।३ मुल और छेद सूत्रों का विभाग किस समय हुआ? यह साधिकार तो नहीं कहा जा सकता, पर यह स्पष्ट है कि प्राचार्य भद्रबाहु ने उत्तराध्ययन और दशवकालिकनियुक्ति में इस सम्बन्ध में कोई भी चर्चा नहीं की है और न जिनदासगणी महत्तर ने ही अपनी उत्तराध्ययन तथा दशवकालिक . की चूणियों में इस सम्बन्ध में किंचिन्मात्र भी चिन्तन किया है। न प्राचार्य हरिभद्र ने दशवकालिकवृत्ति में और न शान्त्याचार्य ने उत्तराध्ययनवृत्ति में मूलसूत्र के सम्बन्ध में चर्चा की है। इससे यह स्पष्ट है कि ग्यारहवीं शताब्दी तक 'मूलसूत्र' इस प्रकार का विभाग नहीं हुआ था। यदि विभाग हा होता तो नियुक्ति, चणि और वत्ति में अवश्य ही निर्देश होता। 'श्रावकविधि' ग्रन्थ के लेखक धनपाल ने, जिनका समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी है, 45 आगमों का निर्देश किया है। विचारसारप्रकरण के लेखक प्रद्य म्नसूरि ने भी 45 भागमों का निर्देश किया है, जिनका समय तेरहवीं शताब्दी है। उन्होंने भी मूलसूत्र के रूप में विभाग नहीं किया है। प्राचार्य श्री प्रभाचन्द्र ने 'प्रभावकचरित्र' में सर्वप्रथम अंग, उपांग, मूल, छेद, यह विभाम किया है। उसके बाद उपाध्याय समयसुन्दरजी 1. (क) तत्त्वार्थसूत्र---पं. सुखलालजी, विवेचन, पृ. 9 (ख) अन्यथा हि अनिबद्धमंगोपांगशः समुद्रप्रतरणवद् दुरध्यवसेयं स्यात् / -तत्त्वार्थभाष्य 1-20 2. सुखबोधा समाचारी, पृष्ठ 31 से 34 3. पं. दलसुख मालवणिया—जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 1 को प्रस्तावना में पृष्ठ 38 4. गाथासहस्री में समयसुन्दरगणी ने धनपालकृत श्रावकविधि' का निम्न उद्धरण दिया है-'पणयालीसं प्रागम', श्लोक----२९७, पृष्ठ-१८ 5. (क) विचारलेस, माथा 344-351 (विचारसार प्रकरण) (ख) ततश्चतुर्विधः कार्योऽनुयोगोऽतः परं मया। ततोऽङ्गोपांगमूलास्यग्रन्थेच्छेदकृतागमः // 241 / / ---प्रभावकचरितम्, दूसरा मार्यरक्षितप्रबन्ध (प्र. सिंधी जैन ग्रन्थमाला, महमदाबाद) [19] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy