________________ तृतीय अध्ययन : चतुरंगीय] घयसित्तब्य पावए–प्रस्तुतगाथा में निर्वाण को तुलना घृतसिक्त अग्नि से की है, जो प्रज्वलित होती है, बुझती नहीं / इसलिए निर्वाण का अर्थ प्रात्मा को प्रज्वलित तेजोमयी स्थिति है, जिसे चाहे मुक्ति–जीवन्मुक्ति कह लें या स्वस्थता कह लें, वात एक ही है।' दुर्लभ चतुरंगप्राप्ति का परम्परागत फल 14. विसालिसेहि सोलेहि जक्खा उत्तर-उत्तरा / ___ महासुक्का व दिप्यन्ता मन्नन्ता अपुणच्चवं // [14] विविध शीलों (व्रताचरणों) के पालन से यक्ष (महनीय ऋद्धिसम्पन्न देव) होते हैं / वे उत्तरोत्तर (स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति एवं लेश्या की अधिकाधिक) समृद्धि के द्वारा महाशुक्ल (चन्द्र, सूर्य) की भाँति दीप्तिमान होते हैं और वे 'स्वर्ग से पुनः च्यवन नहीं होता,' ऐसा मानने लगते हैं। 15. अप्पिया देवकामाणं कामरूव-विउविणो / उड्ढं कप्पेसु चिट्ठन्ति पुवा वाससया बहू // [15] (एक प्रकार से) दिव्य काम-भोगों के लिए अपने आपको अर्पित किये हुए वे देव इच्छानुसार रूप बनाने (विकुर्वणा करने में समर्थ होते हैं तथा ऊर्ध्व कल्पों में पूर्ववर्ष-शत अर्थात्सुदीर्घ काल तक रहते हैं। 16. तत्थ ठिच्चा जहाठाणं जक्खा आउक्खए चुया। उवेन्ति माणुसं जोणि से दसंगेऽभिजायई // [16] वे देव उन कल्पों में (अपनो शोलाराधना के अनुरूप) यथास्थान अपनी-अपनी कालमर्यादा(स्थिति) तक ठहर कर,पायुक्षय होने पर वहाँ से च्युत होते हैं और मनुष्ययोनि पाते हैं, जहाँ वे दशांग भोगमामग्री से युक्त स्थान में जन्म लेते हैं। 17. खेत्तं वत्थु हिरण्णं च पसवो दास-पोरसं / चत्तारि काम-खन्धाणि तत्थ से उववज्जई // [17] क्षेत्र (खेत, खुली जमीन), वास्तु (गृह, प्रासाद श्रादि), स्वर्ण, पशु और दास-पोष्य (या पौरुषेय), ये चार कामस्कन्ध जहाँ होते हैं, वहाँ वे उत्पन्न होते हैं / 18. मित्तवं नायवं होइ उच्चागोए य वष्णवं / अप्पायके महापन्ने अभिजाए जसोबले // 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 186 ‘स च न तथा तृणादिभिर्दीप्यते यथा घृतेनेति अस्य घृतसिक्तस्य निर्वृत्तिरनुगीयते / ' (ख) उत्तराध्ययनचणि, पृ. 99-- नण-तष-पलाल-करीपादिभिरिधनविणेपैरिध्यमानो न तथा दीप्यते यथाधनेनेत्यतोनूमानात ज्ञायते यथा घनेनाभिषिक्तोऽधिकं भाति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org