________________ 70] [उत्तराध्ययनसून [18] वे सन्मित्रों से युक्त, ज्ञातिमान् उच्चगोत्रीय, सुन्दर वर्ण वाले (सुरूप), नीरोग, महाप्राज्ञ, अभिजात-कुलीन, यशस्वी, और बलवान होते हैं। 19. भोच्चा माणुस्सए भोए अप्पडिरूवे अहाउयं / पुन्वं विसुद्ध-सद्धम्मे केवलं बोहि बुज्मिया // [16] आयु- पर्यन्त (यथायुष्य) मनुष्यसम्बन्धी अनुपम (अप्रतिरूप) भोगों को भोग कर भी पूर्वकाल में विशुद्ध सद्धर्म के प्राराधक होने से वे निष्कलंक (केवलीप्रज्ञप्त धर्मप्राप्तिरूप) बोधि का अनुभव करते हैं। 20. चउरंगं दुल्लहं नच्चा संजमं पडिवज्जिया। तवसा धुयकम्मंसे सिद्ध हवइ सासए / -त्ति बेमि। [20] पूर्वोक्त चार अंगों को दुर्लभ जान कर वे साधक संयम-धर्म को अंगीकार करते हैं, तदनन्तर तपश्चर्या से कर्म के सब अंशों को क्षय कर वे शाश्वत सिद्ध (मुक्त) हो जाते हैं। __ -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-जक्खा—यक्ष शब्द का प्राचीन अर्थ यहाँ ऊर्वकल्पवासी देव है / यज् धातु से निष्पन्न यक्ष शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ है-जिनकी इज्या-पूजा की जाए, वह यक्ष है / अथवा तथाविध ऋद्धि-समुदाय होने पर भी अन्त में क्षय को प्राप्त होता है, वह 'यक्ष' है।' महासुक्का-महाशुक्ल अतिशय उज्ज्वल प्रभा वाले सूर्य, चन्द्र आदि को कहा गया है / जवखा शब्द के साथ 'उत्तर-उत्तरा' और 'महासुक्का' शब्द होने से ऊपर-ऊपर के देवों का सूचक यक्ष शब्द है तथा वे महाशुक्लरूप चन्द्र, सूर्य आदि के समान देदीप्यमान हैं / इससे उन देवों की शरीरसम्पदा प्रतिपादित की गई है। कामरूपविउविणो-चार अर्थ-(१) कामरूपविकुविणः-इच्छानुसार रूप-विकुर्वणा करने के स्वभाव वाले, (2) कामरूपविकरणा:-यथेष्ट रूपादि बनाने की शक्ति से युक्त, (3) पाठ प्रकार के ऐश्वर्य से युक्त, (4) एक साथ अनेक आकार वाले रूप बनाने की शक्ति से सम्पन्न / 3 पुव्वा वाससया बहू-८४ लाख वर्ष को 84 लाख वर्ष से गुणा करने पर जो संख्या प्राप्त होती है, उसे पूर्व कहते हैं / 70560000000000 अर्थात् सत्तर लाख छप्पन हजार करोड़ वर्षों का 1. (क) इज्यन्ते पूज्यन्ते इति यक्षाः, यान्ति वा तथाविद्धिसमुदयेऽपि क्षयमिति यक्षाः / -बहद्वत्ति, पत्र 187 (ख) उत्तरज्झयणाणि टिप्पण (मुनि नथमलजी), अ. 3, पृ. 29 2. महाशुक्ला:-अतिशयोज्ज्वलतया चन्द्रादित्यादयः / -बृहवृत्ति, पत्र 187 3. (क) कामतो रूपाणि विकुर्वितु शीलं येषां ते इमे कामरूपविकुर्विणः / (ख) अष्टप्रकारेश्वर्ययुक्ता इत्यर्थः / -उत्तरा. चूणि, पृ. 101 (ग) कामरूपविकरणा:--यथेष्टरूपादिनिर्वर्तनशक्तिसमन्विताः / —सुखबोधा पत्र 77 (घ) 'युगपदनेकाकाररूपविकरणशक्तिः कामरूपित्वमिति / ' तत्त्वार्थराजवार्तिक 3136, पृ. 203 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org