________________ 68] [उत्तराध्ययनसूत्र 13. विगिच कम्मुणो हेउं जसं संचिणु खन्तिए / __पाढवं सरोरं हिच्चा उड्ढं पक्कमई दिसं // | 13 | (हे साधक ! ) कर्म के हेतुओं को दूर कर, क्षमा से यश (यशस्कर विनय अथवा संयम) का संचय कर / ऐसा माधक ही पार्थिव शरीर का त्याग करके ऊर्ध्व दिशा (स्वर्ग या भोक्ष) की ओर गमन करता है। विवेचन–चतुरंगप्राप्ति : अनन्तरफलदायिनी--(2) चारों अंगों को प्राप्त प्रशस्त तपस्वी नये कर्मों को प्राते हुए रोक कर अनाश्रव (संवृत) होता है, पुराने कर्मों की निर्जरा करता है, (2) चतुरंगप्राप्ति के बाद मोक्ष के प्रति सीधी-निविघ्न प्रगति होने से शुद्धि-कषायजन्य कलुपता का नाश होती है / शुद्धिविहीन आत्मा कपायकलुषित होने से धर्मभ्रष्ट भी हो सकता है, परन्तु जब शुद्धि हो जाती है तब उस पात्मा में धर्म स्थिर हो जाता है, धर्म में स्थिरता होने पर घृतसिक्त अग्नि की तरह तपत्याग एवं चारित्र से परम तेजस्विता को प्राप्त कर लेता है / (3) अतः कर्म के मिथ्यात्वादि हेतुओं को दूर करके जो साधक क्षमादि धर्मसम्पत्ति से यशस्कर संयम की वृद्धि करता है, वह इस शरीर को छोड़ने के बाद सीधा ऊर्ध्वगमन करता है—-या तो पंच अनुत्तर विमानों में से किसी एक में या फिर सीधा मोक्ष में जाता है। यह चतुरंगप्राप्ति का अनन्तर—अासन्न फल है।' निवाणं परम जाइ : व्याख्या-(१) चूर्णिकार के अनुसार निर्वाण का अर्थ मोक्ष है, (2-3) शान्त्याचार्य के अनसार इसके दो अर्थ हैं-स्वास्थ्य अथवा जीव-मुक्ति / स्वास्थ्य का अर्थ है--स्व (प्रात्मा) में अवस्थिति-यात्मरमणता / कषायों से रहित शुद्ध व्यक्ति में जब धर्म स्थिर हो जाता है, तब आत्मस्वरूप में उसकी अवस्थिति सहज हो जाती है। स्व में स्थिरता से ही साधक में उत्तरोत्तर सच्चे सुख की वृद्धि होती है / प्रागम के अनुसार एक मास की दीक्षापर्याय वाला श्रमण व्यन्तर देवों को तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर जाता है / अात्मस्थ साधक चक्रवर्ती के सुखों को भी अतिक्रमण कर जाता है / इस प्रकार के परम उत्कृष्ट स्वाधीन सुख का अनुभव प्रात्मस्वरूप या यात्मगुणों में स्थित को होता है, यही स्वस्थता निर्वृत्ति (परम सुख की स्थिति) अथवा इसी जीवन में मुक्ति (जीवन्मुक्ति) है, जिसका स्वरूप 'प्रशमरति' में बताया गया है J 'निजितमदमदनानां, वाक्कायमनोविकाररहितानाम् / विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम् // अर्थात्-जिन सुविहित साधकों ने पाठ मद एवं मदन (काम) को जीत लिया है, जो मन-वचनकाया के विकारों से रहित हैं, जो 'पर' की अाशा (अपेक्षा–स्पृहा) से निवृत्त हैं, उनके लिए यहीं " मुक्ति है। 1. (क) बृहदवत्ति, पत्र 186 (ख) उत्तराध्ययन प्रियशिनीव्याख्या, अ. 3, पृ. 790 2. (क) “निर्वृत्तिः निर्वाणम्'–उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. 99 (ख) 'निर्वाणं-निवत्तिनिर्वाणं स्वास्थ्यमित्यर्थः, परम----प्रकृष्टम् / ' यदा निर्वाणमिति जीवन्मुक्तिम् ।'-वहवत्ति, पत्र 186 (ग) प्रशमरति, श्लोक 238 (घ) सुखबोधा, पत्र 76 (घ) तणसंथारणिसण्णो वि मुणिवरो भट्टरायमयमोहो जं पाबइ मुत्तिसहं कत्तो नं चक्कवट्टी वि।। -पुखबोधा, पत्र 16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org