________________ तृतीय अध्ययन : चतुरंगीय] [67 जो प्राचार्य कहते हैं, वह सत्य है, गोष्ठामाहिल मिथ्यावादी निह्नव है। फिर भी गोष्ठामाहिल न माना तब संघ ने उसे बहिष्कृत कर दिया। इस प्रकार गोष्ठामाहिल सम्यक्-श्रद्धाभ्रष्ट हो गया / ' इसी कारण शास्त्र में कहा गया है कि श्रद्धा परम दुर्लभ है / संयम में पुरुषार्थ को दुर्लभता /10. सुइं च लधु सद्धं च वीरियं पुण दुल्लहं / बहवे रोयमाणा वि नो एणं पडिवज्जए॥ [10] धर्मश्रवण (श्रुति) और श्रद्धा प्राप्त करके भी (संयम में) वीर्य (पराक्रम) होना अति दुर्लभ है। बहुत-से व्यक्ति संयम में अभिरुचि रखते हुए भी उसे सम्यक्तया अंगीकार नहीं कर पाते / विवेचन--संयम में पुरुषार्थ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं दुर्लभ-मनुष्यत्व, धर्मश्रवण एवं श्रद्धा युक्त होने पर भी अधिकांश व्यक्ति चारित्रमोहनीयकर्म के उदय से संयम–चारित्र में पुरुषार्थ नहीं कर सकते / वीर्य का अभिप्राय यहाँ चारित्र-पालन में अपनी शक्ति लगाना है, वही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं दुर्लभ है / वही कर्मरूपी मेघपटल को उड़ाने के लिए पवनसम, मोक्षप्राप्ति के लिए विशिष्ट कल्पवृक्षसम, कर्ममल को धोने के लिए जल-तुल्य, भोगभुजंग के विष के निवारणार्थ मंत्रसम दुर्लभ चतुरंगप्राप्ति का अनन्तरफल 11. माणुसतंमि प्रायाओ जो धम्म सोच्च सद्दहे। तवस्सी वीरियं लधु संवुडे निधुणे रयं / / [11] मनुष्यदेह में आया हुआ (अथवा मनुष्यत्व को प्राप्त हुआ) जो व्यक्ति धर्म-श्रवण करके उस पर श्रद्धा करता है, वह तपस्वी (मायादि शल्यत्रय से रहित प्रशस्त तप का अाराधक), संयम में वीर्य (पुरुषार्थ या शक्ति) को उपलब्ध करके संवृत (पाश्रवरहित) होता है तथा कर्म रज को नष्ट कर डालता है। 12. सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई। निव्याणं परमं जाइ घय-सित्त व्व पावए / [12] जो ऋजुभूत (सरल) होता है, उसे शुद्धि प्राप्त होती है और जो शुद्ध होता है, उसमें धर्म ठहरता है / (जिसमें धर्म स्थिर है, वह) घृत से सिक्त (-सींची हुई) अग्नि की तरह परम निर्वाण (विशुद्ध आत्मदीप्ति) को प्राप्त होता है / 1. (क) बृहवृत्ति, पत्र 185 (ख) उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 98 (ग) सुखबोधा पत्र 69-75 (घ) अावश्यकनियुक्ति, मलयगिरिवृत्ति, पत्र 401 2. (क) उत्तराध्ययन प्रियदर्शिनी व्याख्या, अ. 3, पृ. 788 (ख) बृहृवृत्ति, पत्र 186 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org