SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 66] [उत्तराध्ययनसून रखा है, मेरा पेट अनेक विद्याओं से पूर्ण होने के कारण फट रहा है। तथा जामुन वृक्ष की शाखा इसलिए ले रखी है कि इस जम्बूद्वीप में मेरा कोई प्रतिवादी नहीं रहा।" रोहगुप्त मुनि ने गुरुदेव श्रीगुप्तचार्य से बिना पूछे ही उसकी इस घोषणा एवं पटहवादन को रुकवा दिया। श्रीगुप्ताचार्य से जब बाद में रोहगुप्त मुनि ने यह बात कही तो उन्होंने कहा-तुमने अच्छा नहीं किया। बाद में पराजित कर देने पर भी वह परिव्राजक वृश्चिकादि 7 विद्याओं से तुम पर उपद्रव करेगा। परन्तु रोहगुप्त ने वादविजय और उपद्रवनिवारण के लिए आशीर्वाद देने का कहा तो गुरुदेव ने मायूरी ग्रादि सात 7 विद्याएँ प्रतीकारार्थ दी तथा क्षुद्र विद्याकृत उपसर्ग-निवारणार्थ रजोहरण मंत्रित करके दे दिया। रोहगुप्त राजसभा में पहुँचा। परिव्राजक ने जीव और अजीव-राशिद्वय का पक्ष प्रस्तुत किया जो वास्तव में रोहगुप्त का ही पक्ष था, रोहगुप्त ने उसे पराजित करने हेतु स्वसिद्धान्तविरुद्ध 'जीव, अजीव और नो जीव,' यों राशिय का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। नोजीव में उदाहरण बतायाछिपकली आदि की कटी हुई पूछ अादि / इससे परिव्राजक ने वाद में निरुत्तर होकर रोषवश रोहगुप्त को नष्ट करने हेतु उस पर वृश्चिकादि विद्याओं का प्रयोग किया, परन्तु रोहगुप्त ने उनकी प्रतिपक्षी सात विद्यानों के प्रयोग से वृश्चिकादि सबको भगा दिया। सब ने परिव्राजक को पराजित करके नगरबहिष्कृत कर दिया। गुरुदेव के पास पाकर रोहगुप्त ने त्रिराशि के पक्ष के स्थापन से विजयप्राप्ति का वृत्तान्त बतलाया तो उन्होंने कहा-यह तो तुमने सिद्धान्त-विरुद्ध प्ररूपणा की है। अत: राजसभा में जा कर ऐसा कहो कि 'मैंने तो सिर्फ परिव्राजक का मान मर्दन करने के उद्देश्य से त्रिराशि पक्ष उपस्थित किया था, हमारा सिद्धान्त द्विराशिवाद का ही है / परन्तु रोहगुप्त बहुत समझाने पर भी अपने दुराग्रह पर अड़ा रहा / गुरु के साथ प्रतिवाद करने को उद्यत हो गया। फलतः बलश्री राजा की राजसभा में गरु-शिष्य का छह महीने तक विवाद चला। अन्त में राजा आदि के साथ श्री गुप्ताचार्य कुत्रिकापण पहुँचे, वहाँ जाकर जीव और अजीव क्रमशः मांगा तो दुकानदार ने दोनों ही पदार्थ दिखला दिये। परन्तु 'नोजीव' मांगने पर दुकानदार ने कहा-'नोजीव' तो तीन लोक में भी नहीं है / तीन लोक में जो जो चीजें हैं, वे सब यहाँ मिलती हैं / नोजीव तीन लोक में है ही नहीं। दुकानदार की बात सुन कर आचार्य महाराज ने उसे फिर समझाया, वह नहीं माना, तब रोहगुप्त को पराजित घोषित करके राजसभा से बहिष्कृत कर दिया। गच्छवहिष्कृत होकर रोहगुप्त ने वैशेषिकदर्शन चलाया। [7] गोष्ठामाहिल-प्राचार्य प्रार्यरक्षित ने दुर्बीलकापुष्यमित्र को योग्य समझकर जब अपना उत्तराधिकारी प्राचार्य घोषित कर दिया तो गोष्ठामाहिल ईर्ष्या से जल उठा। एक बार प्राचार्य दर्बलिकापूष्यमित्र जब अपने शिष्य विन्ध्यमुनि को नौव पूर्व—प्रत्याख्यानप्रवाद को वाचना दे रहे थे तब पाठ पाया-पाणाइवायं पच्चक्खामि जावज्जीवाए,' इस पर प्रतिवाद करते हुए गोष्ठामाहिल बोले-'जावज्जीवाए' यह नहीं कहना चाहिए, क्योंकि ऐसा कहने से प्रत्याख्यान सीमित एवं सावधिक हो जाता है एवं उसमें 'भविष्य में मारूंगा' ऐसी आकांक्षा भी संभव है। आचार्यश्री ने समझाया-इस प्ररूपणा में उत्सूत्रप्ररूपणादोष, मर्यादाविहीन, कालावधिरहित होने से अकार्यसेवन तथा भविष्य में देवादि भवों में प्रत्याख्यान न होने से व्रतभंग का दोष लगने की। 'यावज्जीव' से मनुष्यभव तक ही गृहीत व्रत का निरतिचाररूप से पालन हो सकता T है। इस प्रकार समझाने पर भी गोष्ठामाहिल ने अपना दुराग्रह नहीं छोड़ा तो संघ ने शासनदेवी से विदेहक्षेत्र में विहरमान तीर्थकर से सत्य का निर्णय करके आने की प्रार्थना की। वह वहाँ जाकर संदेश लाई कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy