SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 54 [उत्तराध्ययनसून दूर हो जाने और अतिशय श्रुतज्ञान प्राप्त हो जाने पर बहुश्रुत होने के कारण अनेक साधु-साध्वियों को वाचना देते रहने के कारण मन में गर्व, ग्लानि, झुंझलाहट आना, इससे तो मूर्ख रहता तो अच्छा रहता, अतिशय श्रुतज्ञानी होने के कारण अब मुझे सभी साधुसाध्वी वाचना के लिए तंग करते हैं / न मैं सुख' से सो सकता हूँ, न खा-पी सकता हूँ, न आराम कर सकता हूँ, इस प्रकार का विचार करने वाला साधक ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध कर लेता है और अज्ञानपरीषह से भी वह पराजित हो जाता है / अतः ऐसा विचार न करके मन में विषाद और गर्व को निकाल कर निर्जरार्थ अज्ञानपरीषह को समभावपूर्वक सहना अज्ञान-परीषह-विजय है।' उवहाणं- उपधान आगमों का विधिवत् अध्ययन करते समय परम्परागत-विधि के अनुसार प्रत्येक प्रागम के लिए निश्चित प्रायंबिल आदि तप करने का विधान / प्राचार-दिनकर में इसका स्पष्ट वर्णन है / (22) दर्शनपरीषह (-प्रदर्शनपरीषह) 44. 'नथि नूणं परे लोए इड्डी वावि तवस्सिणो। ___ अदुवा वंचिओ मि' त्ति इइ भिक्खू न चिन्तए // [44] "निश्चय ही परलोक नहीं हैं, तपस्वी की ऋद्धि भी नहीं है, हो न हो, मैं (तो धम के नाम पर) ठगा गया हूँ,"--भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे / 45. 'अभू जिणा अस्थि जिणा अदुवावि भविस्सई / मुसं ते एवमाहंसु' इइ भिक्खू न चिन्तए / [45] भूतकाल में जिन हुए थे, वर्तमान में जिन है, और भविष्य में भी जिन होंगे, ऐसा जो कहते हैं, वे असत्य कहते हैं, भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे। विवेचन–दर्शनपरीषह--दिगम्बर परम्परा में इसके बदले प्रदर्शनपरीषह प्रसिद्ध है। दोनों का लक्षण प्रायः मिलता-जुलता है। दर्शन का एक अर्थ यहाँ सम्यग्दर्शन है। एकान्त क्रियावादी दियों के विचित्र मत सुन कर भी सम्यक रूप से सहन करना-निश्चलचित्त से सम्यग्दर्शन को धारण करना, दर्शनपरीषहसहन है / अथवा दर्शनव्यामोह न होना दर्शनपरीषह-सहन है / अथवा जिन, अथवा उनके द्वारा कथित जीव, अजीव, धर्म-अधर्म, परभव आदि परोक्ष होने के कारण मिथ्या हैं, ऐसा चिन्तन न करना दर्शनपरीषह-सहन है / इडी वावि तवस्सियो तपस्या आदि से तपस्वियों को प्राप्त होने वाली ऋद्धि--शक्ति विशेष, जिसे 'योगविभूति' कहा जाता है। पातंजलयोगदर्शन के विभूतिपाद में ऐसी योगजविभूतियों 1. (क) सर्वार्थसिद्धि 9 / 9 / 427 (ख) आवश्यक. अ. 4 (ग) उत्तराध्ययन, अ. 2 वृत्ति 2, (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 128, 347 (ख) प्राचारदिनकर, विभाग 1, योगोद्वहन विधि, पत्र 86-110 3. (क) उत्तराध्ययन, अ. 2 (ख) भगवती., श. 8 उ. 8 (ग) धर्मसंग्रह अ. पत्र, 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy