________________ द्वितीय अध्ययन : परिषह-प्रविभक्ति] का वर्णन है, औपपातिक प्रादि जैन आगमों में ऐसी तपोजनित ऋद्धियों का उल्लेख मिलता है। ऋद्धि शब्द का यही अर्थ गृहीत किया गया है। बृहद्वत्तिकार ने चरणरज से सर्वरोग-शान्ति, तृणाग्र से सर्वकाम-प्रदान, प्रस्वेद से रत्नमिश्रित स्वर्णवृष्टि, हजारों महाशिलाओं को गिराने की शक्ति आदि ऋद्धियों का उल्लेख किया है।' दर्शनपरीषह के विषय में आर्य आषाढ़ के प्रदर्शन-निवारणार्थ स्वर्ग से समागत शिष्यों का उदाहरण द्रष्टव्य है। उपसंहार 46. एए परीसहा सब्वे कासवेण पवेइया / जे भिक्खू न विहन्नेज्जा पुट्ठो केणइ कण्हुई // -त्ति बेमि। [46] काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान महावीर ने इन सभी परीषहों का प्ररूपण किया है। इन्हें जान कर कहीं भी इनमें से किसी भी परीषह से स्पृष्ट-आक्रान्त होने पर भिक्षु इनसे पराजित न हो, ऐसा मैं कहता हूँ। // द्वितीय अध्ययन : परीषह प्रविभक्ति सम्पूर्ण // 1. (क) ऋद्धिर्वा तपोमाहात्म्यरूपा""सा च प्रामोषध्यादिः / —बृहद्वत्ति, पत्र 131 (ख) प्रौपपातिक. सूत्र 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org