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________________ द्वितीय अध्ययन : परिषह-प्रविभक्ति ] लक्ष्य न दिया। कालकाचार्य ने भी अपना परिचय नहीं दिया। एक दिन सागरचन्द्र मुनि ने परिषद् में व्याख्यान दिया, सब ने उनके व्याख्यान की प्रशंसा की। कालकाचार्य से सागरचन्द्रमुनि ने पूछा-'मेरा व्याख्यान कैसा था ?' वह बोले-'अच्छा था।' फिर मुनि प्राचार्य के साथ तर्कवितर्क करने लगे, किन्तु वृद्ध प्राचार्य की युक्तियों के आगे वे टिक न सके। इधर कुछ समय के बाद कालकाचार्य के वे अतिप्रमादी शिष्य उन्हें ढूंढ़ते-ढूंढ़ते स्वर्णभूमि पहुँचे। उन्होंने उपाश्रय में प्रा कर सागरचन्द्रमुनि से पूछा--'क्या यहाँ कालकाचार्य पाए हैं ?' सागरचन्द्र मुनि ने कहा-'एक वृद्ध के सिवाय और कोई यहाँ नहीं आया है।' अतिप्रमादी शिष्यों ने कालकाचार्य को पहचान लिया, वे चरणों में गिर कर उनसे क्षमायाचना करने लगे। यह देख सागरचन्द्र मुनि भी उनके चरणों में गिरे और क्षमायाचना करते हुए बोले-'गुरुदेव, क्षमा करें, मैं आपको नहीं पहचान सका। अल्प ज्ञान से गवित होकर मैंने आपकी अाशातना की।" प्राचार्य ने कहा- 'वत्स ! श्रुतगर्व नहीं करना चाहिए।' इस प्रकार जैसे सागरचन्द्र मुनि प्रज्ञापरीषह से पराजित हो गए थे, वैसे साधक को पराजित नहीं होना चाहिए। (21) अज्ञानपरीषह 42. 'निरटुगम्मि विरओ मेहुणाओ सुसंवुडो। ___ जो सक्खं नाभिजाणामि धम्म कल्लाण पावगं // ' [42] मैं व्यर्थ ही मेथुन आदि सांसारिक सुखों से विरत हमा, मैंने इन्द्रिय और मन का संवरण (विषयों से निरोध) वृथा किया; क्योंकि धर्म कल्याणकारी है या पापकारी, यह मैं प्रत्यक्ष तो कुछ भी नहीं देख (---जान) पाता हूँ; (मनि ऐसा न सोचे / ) 43. 'तवोवहाणमादाय पडिमं पडिवज्जओ। एवं पि विहरओ मे छउमं न नियट्टई // ' {42] तप और उपधान को स्वीकार करता हूँ, प्रतिमाओं को भी धारण (एवं पालन) करता हूँ; इस प्रकार विशिष्ट साधनापथ पर विहरण करने पर भी मेरा छद्म अर्थात् ज्ञानावरणीयादि कर्म का प्रावरण दूर नहीं हो रहा है; --('ऐसा चिन्तन न करे।') विवेचन–अज्ञानपरीषह---अज्ञान का अर्थ-ज्ञान का प्रभाव नहीं, किन्तु अल्पज्ञान या मिथ्याज्ञान है। यह परीषह अज्ञान के सद्भाव और अभाव-- दोनों प्रकार से होता है। अज्ञान के रहते साधक में दैन्य, अश्रद्धा, भ्रान्ति आदि पैदा होती है। जैसे—मैं अब्रह्मचर्य से विरत हुआ, दुष्कर तपश्चरण किया, धर्मादि का आचरण किया, मेरा चित्त निरन्तर अप्रमत्त रहता है, यह मूर्ख है, पशुतुल्य है, कुछ नहीं जानता, इत्यादि तिरस्कारवचनों को भी मैं सहन करता हूँ, फिर भी मेरी छद्मस्थता नहीं मिटी, ज्ञानावरणीयादि कर्मों का क्षय होकर अभी तक मुझे अतिशयज्ञान प्राप्त नहीं हुआ-इस प्रकार का विचार करना, इस परीषह से हारना है और इस प्रकार का विचार न करना, इस परीषह पर विजय पाना है। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशमवश दूसरी ओर अज्ञान 1. (क) उत्तराध्ययननियुक्ति, गा. 120 (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र 127 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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