________________ 52] [उत्तराध्ययनसूत्रे अप्पिच्छे---'अल्पेच्छ के तीन अर्थ-शान्त्याचार्य के अनुसार-(१) थोड़ी इच्छा वाला, (2) इच्छारहित-निरीह-निःस्पृह ; प्राचार्य नेमिचन्द्र के अनुसार-(३) जो भिक्षु धर्मोपकरणप्राप्ति मात्र का अभिलाषी हो, सत्कार-पूजा आदि की आकांक्षा नहीं करता।' अन्नाएसी अज्ञातैषी---दो अर्थ:-(१) जो भिक्षु ज्ञाति, कुल, तप, शास्त्रज्ञान आदि का परिचय दिये बिना, अज्ञात रह कर आहारादि की एषणा करता है, (2) अज्ञात---अपरिचित कुलों से आहारादि की एषणा करने वाला। (20) प्रज्ञापरीषह 40. 'से नणं मए पुन्वं कम्माणाणफला कडा / जेणाहं नाभिजाणामि पुट्ठो केणइ कण्हुई / ' [20] अवश्य ही मैंने पूर्वकाल में अज्ञानरूप फल देने वाले दुष्कर्म किये हैं, जिससे मैं किसी के द्वारा किसी विषय में पूछे जाने पर कुछ भी उत्तर देना नहीं जानता। 41. 'अह पच्छा उइज्जन्ति कम्माणाणफला कडा।' एवमस्सासि अप्पाणं नच्चा कम्मविवागयं // [41] 'अज्ञानरूप फल देने वाले पूर्वकृत कर्म परिपक्व होने पर उदय में पाते हैं। इस प्रकार कर्म के विपाक को जान कर मुनि अपने को आश्वस्त करे। विवेचन प्रज्ञापरीह प्रज्ञा विशिष्ट बुद्धि को कहते हैं। प्रज्ञापरीषह का प्रवचनसारोद्धार के अनुसार अर्थ—प्रज्ञावानों की प्रज्ञा को देख कर अपने में प्रज्ञा के अभाव में उद्वेग या विषाद का अनुभव न होना तथा प्रज्ञा का उत्कर्ष होने पर गर्व-मद न करना, किन्तु इसे कर्मविपाक मानकर अपनी आत्मा को आश्वस्त--स्वस्थ रखना प्रज्ञापरीषहजय है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार 'मैं अंग, पूर्व और प्रकीर्णक शास्त्रों में विशारद हूँ तथा शब्दशास्त्र, न्यायशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र में निपुण हँ। मेरे समक्ष दूसरे लोग सूर्य की प्रभा से अभिभूत हुए खद्योत के समान जरा भी शोभा नहीं देते ; इस प्रकार के विज्ञानमद का अभाव हो जाना प्रज्ञापरीषहजय है / उदाहरण-उज्जयिनी से कालकाचार्य अपने अतिप्रमादी शिष्यों को छोड़ कर अपने शिष्य सागरचन्द्र के पास स्वर्णभूमि नगरी पहुँचे / सागरचन्द्र ने उन्हें एकाकी जान कर उनकी अोर कोई 1, (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 125 : अल्पा-स्तोका धर्मोपकरणप्राप्तिमात्रविषयत्वेन, न तु सत्कारादि-कामितया महती; अल्पशब्दस्याभाववाचित्वेन अविद्यमाना वा इच्छा-वाञ्छा वा यस्येति अल्पेच्छः / (ख) अल्पेच्छः-धर्मोपकरणमात्राभिलाषी, न सत्काराद्याकांक्षी। --सुखबोधा पत्र 49 / / 2. (क) 'न ज्ञापयति-'अहमेवंभूतपूर्वमासम्, न वा क्षपको बहुश्रुतो वेति' अज्ञातैषी'-3. च., पृ. 81 (ग) अज्ञातमज्ञातेन एषते-भिक्षतेऽसौ अज्ञातैषी, निश्रादिरहित इत्यर्थ: ।---उ.चु., प्र. 235 (ग) अज्ञातो-जातिश्रुतादिभिः एषति-उञ्छति अर्थात -पिण्डादीत्यज्ञातैषीः।। --बहदबत्ति, पत्र 125 3. (क) प्रवचनसारोद्धार द्वार 86 (ख) धर्मसंग्रह अधि.३ (ग) तत्त्वार्थ, सर्वार्थ सिद्धि 919 / 42714 - -... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org