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________________ द्वितीय अध्ययन : परिषह-प्रविभक्ति ] [51 करने के लिए निरन्तर उद्यत रहना जल्लपरीषहजय कहलाता है।' (16) सत्कार-पुरस्कारपरीषह 38. अभिवायणमभुट्ठाणं सामी कुज्जा निमन्तणं / जे ताई पडिसेवन्ति न तेसि पोहए मुणी / / [38] राजा आदि शासकवर्गीय जन अभिवादन, अभ्युत्थान अथवा निमंत्रण के रूप में सत्कार करते हैं और जो अन्यतीथिक साधु अथवा स्वतीथिक साधु भी उन्हें (सत्कार-पुरस्कारादि को) स्वीकार करते हैं, मुनि उनकी स्पृहा न करे। 39. अणुक्कसाई अप्पिच्छे अन्नाएसी अलोलुए। रसेसु नाणुगिज्झज्जा नाणुतप्पेज्ज पन्नवं / / [36] अल्प कषाय वाला, अल्प इच्छाओं वाला, अज्ञात कुलों से भिक्षा (आहार की एषणा) करने वाला, अलोलुप भिक्षु (सत्कार-पुरस्कार पाने पर) रसों में गृद्ध-आसक्त न हो। प्रज्ञावान् भिक्षु (दूसरों को सत्कार पाते देख कर) अनुताप (मन में खेद) न करे। विवेचन--सत्कार-पुरस्कारपरीषह-सत्कार का अर्थ-पूजा-प्रशंसा है, पुरस्कार का अर्थ हैअभ्युत्थान, आसनप्रदान, अभिवादन-नमन आदि। सत्कार-पुरस्कार के अभाव में दीनता न लाना, सत्कार-पुरस्कार की आकांक्षा न करना, दूसरों की प्रसिद्धि, प्रशंसा, यश-कीर्ति, सत्कार-सम्मान आदि देख कर मन में ईर्ष्या न करना, दूसरों को नीचा दिखा कर स्वयं प्रतिष्ठा या प्रसिद्धि प्राप्त करने की लिप्सा न करना सत्कार-पुरस्कारपरीषहविजय है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार-'यह मेरा अनादर करता है, चिरकाल से मैंने ब्रह्मचर्य का पालन किया है, मैं महातपस्वी हूँ, स्वसमय-परसमय का निर्णयज्ञ हूँ, मैंने अनेक बार परवादियों को जीता है, तो भी मुझे कोई प्रणाम, या मेरी भक्ति नहीं करता, उत्साह से आसन नहीं देता, मिथ्यादृष्टि का ही आदर-सत्कार करते हैं, उग्रतपस्वियों की व्यन्तरादिक देव पूजा करते थे, अब वे भी हमारी पूजा नहीं करते, जिसका चित्त इस प्रकार के खोटे अभिप्राय से रहित है, वही वास्तव में सत्कार-पुरस्कारपरीषविजयी है। अणुक्कसाई - तीनरूप : चार अर्थ-शान्त्याचार्य के अनुसार—(१) अनुत्कशायी-सत्कार आदि के लिए अनुत्सुक, अनुत्कण्ठित (जो उत्कण्ठित न हो), (2) अनुत्कषायो-जिस के कषाय प्रबल न हों—अनुत्कटकषायी, (3) अणुकषायी- सत्कार आदि न करने वालों पर क्रोध न करने वाला तथा सत्कारादि प्राप्त होने पर अहंकार न करने वाला; आचार्य नेमिचन्द्र भी इसी अर्थ का समर्थन करते हैं / चूणिकार के अनुसार 'अणुकषायो' का अर्थ अल्प कषाय (क्रोधादि) वाला है। 1. (क) धर्मसंग्रह, अधि. 3 (ख) पंचसंग्रह, द्वार 4 (ग) सर्वार्थसिद्धि 9 / 9 / 426 / 4 (घ) चारित्रसार 12506 2. (क) आवश्यक वृत्ति, म. 1 अ. (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र 124 (ग) सर्वार्थसिद्धि 9 / 9 / 426 / 9 3. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 124 प्रौर 420 (ख) सुखबोधा, पत्र 49, (ग) उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 81 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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