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________________ 50 [उत्तराध्ययनसूत्र अचेलगस्स-अचेलक (निर्वस्त्र) जिनकल्पिक साधुओं की दृष्टि से यह कथन है। किन्तु स्थविरकल्पी सचेलक के लिए भी यह परीषह तब होता है, जब दर्भ, घास आदि के संस्तारक पर जो वस्त्र बिछाया गया हो, वह चोरों द्वारा चुरा लिया गया हो, अथवा वह वस्त्र अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण हो, ऐसी स्थिति में दर्भ, घास आदि के तीक्ष्ण स्पर्श को समभाव से सहन किया जाता है / घास आदि से शरीर छिल जाने पर सूर्य की प्रखर किरणों या नमक आदि क्षार पदार्थ पड़ने पर हुई असह्य वेदना को सहना भी इसी परीषह के अन्तर्गत है / ' उदाहरण—श्रावस्ती के जितशत्रु राजा का पुत्र भद्र कामभोगों से विरक्त होकर स्थविरों के पास प्रवजित हा। कालान्तर में एकलविहारप्रतिमा अंगीकार करके वैराज्य देश में गया / वहाँ गुप्तचर समझ कर उसे गिरफ्तार कर लिया गया / उसे मारपीट कर घायल कर दिया और खून रिसते हुए घाव पर क्षार छिड़क कर ऊपर से दर्भ लपेट दिया / अब तो पीड़ा का पार न रहा। किन्तु भद्र मुनि ने समभावपूर्वक उस परीषह को सहन किया / 2 (18) जल्लपरीषह (मलपरीषह) 36. किलिन्नगाए मेहावी पंकेण व रएण वा। घिसु वा परितावेण सायं नो परिदेवए / ग्रीष्मऋतु में (पसीने के साथ धूल मिल जाने से शरीर पर जमे हुए) मैल से, कीचड़ से, रज से अथवा प्रखर ताप से शरीर के क्लिन्न (लिप्त या गीले) हो जाने पर मेधावी श्रमण साता (सुख) के लिए परिदेवन (-विलाप) न करे / / 37. वेएज्ज निज्जरा-पेही आरियं धम्मऽणुत्तरं / जाव सरीरभेउ त्ति जल्लं काएण धारए / (37) निर्जरापेक्षी मुनि अनुत्तर (श्रेष्ठ) आर्यधर्म (वीतरागोक्त श्रुत-चारित्रधर्म) को पा कर शरीर-विनाश-पर्यन्त जल्ल (प्रस्वेदजन्य मैल) शरीर पर धारण किये रहे / उसे (तज्जनित परीषह को) समभाव से वेदन करे। विवेचनजल्लपरीषह : स्वरूप और सहन-इसे मलपरीषह भी कहते हैं / जल्ल का अर्थ हैपसीने से होने वाला मैल / ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की तीक्ष्ण किरणों के ताप से उत्पन्न हुए पसीने के साथ धूल चिपक जाने पर मैल जमा होने से शरीर से दुर्गन्ध निकलती है, उसे मिटाने के लिए ठंडे जल से स्नान करने की अभिलाषा न करना, क्योंकि सचित्त ठंडे पानी से अप्कायिक जीवों की विराध है तथा शरीर पर मैल जमा होने के कारण दाद, खाज आदि चर्मरोग होने पर भी तैलादि मर्दन करने, चन्दनादि लेपन करने आदि की भी अपेक्षा न रखना तथा उक्त कष्ट से उद्विग्न न होकर समभाव हना और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी विमल जल से प्रक्षालन करके कर्ममलपंक को दूर 1. (क) अचेलकत्वादीनि तु तपस्विविशेषणानि / मा भूत सचलेकस्य तृणस्पर्शासम्भवेन अरूक्षस्य / बृहद्वत्ति, पत्र 121 (ख) पंचसंग्रह. द्वार 2 2. उत्तराध्ययन नियुक्ति, अ.२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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