________________ 46] उत्तराध्ययनसून गामकंटगा-ग्रामकण्टक : दो व्याख्या-(१) बृहद्वत्ति के अनुसार-- इन्द्रियग्राम (इन्द्रियसमूह) अर्थ में तथा कानों में कांटों की भांति चुभने वाली प्रतिकूलशब्दात्मक भाषा / (2) मूलाराधना के अनुसार ग्राम्य (गंवार) लोगों के वचन रूपी कांटे।' (13) वधपरीषह 26. हो न संजले भिक्खू मणं पि न परोसए। __तितिक्खं परमं नच्चा भिक्खु-धम्म विचितए // / 26] मारे-पीटे जाने पर भी भिक्षु (बदले में) क्रोध न करे, मन को भी (दुर्भावना से) प्रदूषित न करे, तितिक्षा (क्षमा-सहिष्णुता) को (साधना का) परम अंग जान कर श्रमणधर्म का चिन्तन करे। 27. समणं संजयं दन्तं हणेज्जा कोई कत्थई / 'नस्थि जीवस्स नासु त्ति एवं पेहेज्ज संजए / [27] संयत और दान्त श्रमण को कोई कहीं मारे (वध करे) तो उसे ऐसा अनुप्रेक्षण (चिन्तन) करना चाहिए कि 'प्रात्मा का नाश नहीं होता।' विवेचन-वध के दो अर्थ--(१) डंडा, चाबुक और बेंत आदि से प्राणियों को मारना-पीटना, (2) प्रायु, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास आदि प्राणों का वियोग कर देना / वधपरीषहजय का लक्षण–तीक्ष्ण, तलवार, मूसल, मुद्गर, चाबुक, डंडा आदि अस्त्रों द्वारा ताड़न और पीड़न आदि से जिस साधक का शरीर तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है, तथापि मारने वालों पर लेशमात्र भी द्वेषादि मनोविकार नहीं पाता, यह मेरे पूर्वकृत दुष्कर्मों का फल है; ये बेचारे क्या कर सकते हैं ? इस शरीर का जल के बुलबुले के समान नष्ट होने का स्वभाव है, ये तो दुःख के कारण शरीर को ही बाधा पहुँचाते है, मेरे सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र को कोई नष्ट नहीं कर सकता; इस प्रकार जो साधक विचार करता है, वह वसूले से छीलने और चन्दन से लेप करने, दोनों परिस्थितियों में समदर्शी रहता है, ऐसा साधक ही वधपरीषह पर विजय पाता है।' भिक्खुधम्म-भिक्षुधर्म से यहाँ क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दशविध श्रमणधर्म से अभिप्राय है। समणं-'समण' के तीन रुप: तीन अर्थ-(१)श्रमण (2) समन-सममन और (3) शमन / यात्मिक श्रम एवं तप करने वाला, समन का अर्थ हैं---- 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 110 (ख) ग्रसते इति ग्रामः इन्द्रियग्रामः, तस्येन्द्रियग्रामस्य कंटगा जहा पंथे गच्छंताणं कंटगा विघ्नाय, तहा सद्दादयोऽवि इन्द्रियग्रामकंटया मोक्षिणां विध्नाय / –उत्तरा. चूर्णि, पृ 70 (ग) मूलाराधना, प्राश्वास 4, श्लोक 301 2. (क) सर्वार्थसिद्धि 7425 // 366 / 2 (ख) वही, 611329 / 2 3. वही, 6 / 9:42419, चारित्रसार 129/3 4. स्थानांग में देखें दशविध श्रमणधर्म 10712 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org