________________ द्वितीय अध्ययन : परीषह-प्रविभक्ति] [47 जिसका मन रागद्वेषादि प्रसंगों में सम है, जो समत्व में स्थिर है, शमन का अर्थ है-जिसने कषायों एवं अकुशल वृत्तियों का शमन कर दिया है, जो उपशम, क्षमाभाव एवं शान्ति का पाराधक है !' __ वध-प्रसंग पर चिन्तन-यदि कोई दुष्ट व्यक्ति साधु को गाली दे तो सोचे कि गाली ही देता है, पीटता तो नहीं, पीटने पर सोचे--पीटता ही तो है, मारता तो नहीं, मारने पर सोचे-यह शरीर को ही मारता है, मेरी आत्मा या आत्मधर्म का हनन तो यह कर नहीं सकता, क्योंकि अात्मा और प्रात्मधर्म दोनों शाश्वत, अमर, अमूर्त हैं। धीर पुरुष तो लाभ ही मानता है / 14. याचनापरीषह 28. दुक्करं खलु भो निच्चं अणगारस्स भिवखुणो। सव्वं से जाइयं होइ नत्थि किंचि अजाइयं / / [28] अहो ! अनगार भिक्षु की यह चर्या वास्तव में दुष्कर है कि उसे (वस्त्र, पात्र, आहार आदि) सब कुछ याचना से प्राप्त होता है / उसके पास अयाचित (-बिना मांगा हुआ) कुछ भी नहीं होता। 29. गोयरग्गपबिटुस्स पाणी नो सुप्पसारए / __ 'सेओ अगार-बासु' ति इह भिक्खू न चिन्तए // [26] गोचरी के लिए (गृहस्थ के घर में) प्रविष्ट भिक्षु के लिए गृहस्थ वर्ग के सामने हाथ पसारना आसान नहीं है। अतः भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे कि (इससे तो) गृहवास ही श्रेयस्कर (अच्छा ) है। विवेचन..-याचनापरीषह-विजय भिक्षु को वस्त्र, पात्र, आहार-पानी, उपाश्रय आदि प्राप्त करने के लिए दूसरों (गृहस्थों) से याचना करनी पड़ती है, किन्तु उस याचना में किसी प्रकार की दोनता, होनता, चाटकारिता, मख की विवर्णता या जाति-कलादि बता कर प्रगल्भता नहीं होनी चाहिए / शालीनतापूर्वक स्वधर्मपालनार्थ या संयमयात्रा निर्वाहार्थ याचना करना साधु का धर्म है / इस प्रकार विधिपूर्वक जो याचना करते हुए घबराता नहीं, वह याचनापरिषह पर विजयी होता है। पाणी नो सुप्पसारए : व्याख्या-याचना करने वाले को दूसरों के सामने हाथ पसारना 'मुझे दो', इस प्रकार कहना सरल नहीं है। चूणि में इसका कारण बताया है--कुबेर के समान धनवान व्यक्ति भी जब तक 'मुझे दो' यह वाक्य नहीं कहता, तब तक तो उसका कोई तिरस्कार नहीं करता, किन्तु 'मुझे दो' ऐसा कहते ही वह तिरस्कारभाजन बन जाता है। नीतिकार भी कहते हैं 'गतिभ्रंशो मुखे दैन्यं, गात्रस्वेदो विवर्णता। मरणे यानि चिह्नानि, तानि चिह्नानि याचके // ' 1. श्रमणसूत्र : श्रमण शब्द पर निर्वचन (उत्त, अमरमुनि) पृ. 54-55 -उत्त. पूणि पृ. 72 2. अक्कोस-हणण-मारण-धम्मभंसाण बालसुलभाणं / लाभं मन्नति धीरो, जहत्तराणं अभाबंमि / / 3. (क) पंचसंग्रह, द्वार 4 (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र 111 (ग) सर्वार्थ सिद्धि 969 / 825 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org _