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________________ द्वितीय अध्ययन : परोषह-प्रविति] [45 है, भविष्य में ऐसा नहीं करूंगा। यदि आक्रोश असत्य है तो रोष करना ही नहीं चाहिए। "किसी साधक को जाते देख कोई व्यक्ति उस पर व्यंग्य कसता है कि यह चाण्डाल है या ब्राह्मण, अथवा शूद्र है या तापस? अथवा कोई तत्त्वविशारद योगीश्वर है ?" इस प्रकार का वार्तालाप अनेक प्रकार के विकल्प करने वाले वाचालों के मुख से सुन कर महायोगी हृदय में रुष्ट और तुष्ट न होकर अपने मार्ग से चला जाता है। गाली सन कर वह सोचे-जितनी इच्छा हो गाली दो, क्योंकि आप गालीमान है. जगत् में विदित है कि जिसके पास जो चीज होती है, वही देता है। हमारे पास गालियां नहीं हैं, इसलिए देने में असमर्थ हैं। इस प्रकार आक्रोश वचनों का उत्तर न देकर धीर एवं क्षमाशील अर्जुनमुनि की तरह जो उन्हें समभाव से सहता है, वही अत्यन्त लाभ में रहता है।' पडिसंजले--प्रतिसंज्वलन : तीन अर्थ-चूर्णिकार ने संज्वलन के दो अर्थ प्रस्तुत किये हैं-.. (1) रोषोद्गम और (2) मानोदय / प्रतिसंज्वलन का लक्षण उन्हीं के शब्दों में 'कंपति रोषादग्निः संधुक्षितवच्च दीप्यतेऽनेन / तं प्रत्याक्रोशत्याहन्ति च हन्येत येन स मतः // ' जो रोष से कांप उठता है, अग्नि की भांति धधकने लगता है, रोषाग्नि प्रदीप्त कर देता है, जो आक्रोश के प्रति आक्रोश और घात के प्रति प्रत्याधात करता है, वही प्रतिसंज्वलन है। [2] (बदला लेने के लिए) गाली के बदले में गाली देना, अर्थ बृहद्वृत्तिकार ने किया है।* 1. (क) आक्रोशनमाकोशोऽसभ्यभाषात्मकः, उत्त. प्र. 2 वृत्ति, 'माकोशोऽनिष्टवचनं'-श्रावश्यक. 4 अ. 'आक्रोशेतिरस्कुर्यात्' -बृ. वृ., पत्र 140 (ख) 'आऋ ष्टो हि नाक्रोशेत्, क्षमाश्रमणतां विदन् / __ प्रत्युताष्टरि यतिश्चिन्तयेदुपकारिताम् // -धर्मसंग्रह, अधि. 3 (ग) आऋ ष्टेन मतिमता तत्त्वार्थविचारणे मतिः कार्या / यदि सत्यं कः कोपः ? यद्यन्तं 'किमिह कोपेन ?' -प्रवचन, द्वार 86 (घ) चाण्डालः किमयं द्विजातिरथवा शूद्रोऽथवा तापसः / किवा तत्त्वनिदेशपेशलमतियोगीश्वरः कोऽपि वा। इत्यस्वल्पविकल्पजल्पमुखरैः संभाष्यमाणो जनर / नो रुष्टो, नहि चैव हृष्टहृदयो योगीश्वरो गच्छति // (ङ) ददतु ददतु गाली गालिमन्तो भवन्तः, वयमिह तदभावात गालिदानेऽप्यशक्ताः। जगति विदितमेतत् दीयते विद्यमानं, नहि शशकविषाणं कोऽपि कस्मै ददाति // 2. (क) उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 72 (ख) उत्तराज्झयणाणि (मुनि नथमल), अ. 2, पृ. 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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