SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 44] [उत्तराध्ययनसूत्र असमाधिदायक अथवा वहाँ किसी व्यन्तरादि का उपद्रव होने से तथा स्वाध्याय-ध्यानादि में विघ्न पड़ने से अमंगलकारी, अथवा (3) किसी पुण्यशाली के द्वारा निर्मित विविध मणिकिरणों से प्रकाशित, सुदृढ़, मणिनिर्मित स्तम्भों से तथा चाँदी आदि धातु की दीवारों से समृद्ध, प्रकाश और हवा से युक्त वसति-उपाश्रय कल्याणरूप है और जीर्ण-शीर्ण, टूटा-फूटा, खण्डहर-सा बना हुआ, टूटे हुए दरवाजों से युक्त, ठूठ य लकड़ियों की छत से ढका, जहाँ इधर-उधर घास, कड़ा-कचरा, धूल, राख, भूसा बिखरा पड़ा है, यत्र-तत्र चूहों के बिल हैं, नेवले, बिल्ली, कुत्तों आदि का अबाध प्रवेश है, मलमूत्र आदि को दुर्गन्ध से भरा है, मक्खियाँ भिनभिना रही हैं, ऐसा उपाश्रय पापरूप है।' अहियासए : दो अर्थ-(१) सुख हो या दुःख, समभावपूर्वक सहन करे, (2) वहाँ रहे / ' (12) आक्रोशपरीषह 24. अक्कोसेज्ज परो भिक्खन तेसि पडिसंजले। सरिसो होइ बालाणं तम्हा भिक्खू न संजले // [24] यदि कोई भिक्षु को गाली दे तो उसके प्रति क्रोध न करे / क्रोध करने वाला भिक्ष बालकों (अज्ञानियों) के सदृश हो जाता है, इसलिए भिक्षु (आक्रोशकाल में) संज्वलित न हो (-क्रोध से भभके नहीं)। 25. सोच्चाणं फरुसा भासा दारुणा गाम-कण्टगा। तुसिणीओ उवेहेज्जा न ताओ मणसीकरे / / [25] दारुण (असह्य) ग्रामकण्टक (कांटे की तरह चुभने वाली) कठोर भाषा को सुन कर भिक्षु मौन रहे, उसकी उपेक्षा करे, उसे मन में भी न लाए। विवेचन-आक्रोशपरीषह : स्वरूप और सहन-मिथ्यादर्शन के उद्रेक से क्रोधाग्नि को उद्दीप्त करने वाले क्रोधरूप, आक्रोशरूप, कठोर, अवज्ञाकर, निन्दारूप, तिरस्कारसूचक असभ्य वचनों को सुनते हए भी जिसका चित्त उस ओर नहीं जाता, यद्यपि तत्काल उसका प्रतीकार करने में समर्थ है, फिर भी यह सब पापकर्म का विपाक (फल) है इस तरह जो चिन्तन करता है, उन शब्दों को सुन कर जो तपश्चरण की भावना में तत्पर होता है और जो कषायविष को अपने हृदय में लेशमात्र भी अवकाश नहीं देता, उसके आक्रोशपरीषह-सहन अवश्य होता है / अक्कोसेज्ज........ की व्याख्या--प्राक्रोश शब्द तिरस्कार, अनिष्टवचन, क्रोधावेश में आकर गाली देना इत्यादि अर्थों में प्रयुक्त होता है / 'धर्मसंग्रह' में बताया है साधक अाक्रुष्ट होने पर भी अपनी क्षमाश्रमणता जानता हुआ प्रत्याक्रोश न करे, वह अपने प्रति आक्रोश करने वाले की उपकारिता का विचार करे / 'प्रवचनसारोद्धार' में बताया गया है---याक्रुष्ट बुद्धिमान् को तत्त्वार्थ के चिन्तन में अपनी बुद्धि लगानी चाहिए, यदि आक्रोशकर्ता का अाक्रोश सच्चा है तो उसके प्रति क्रोध करने की क्या आवश्यता है ? बल्कि यह सोचना चाहिए कि यह परम उपकारी मुझे हितशिक्षा देता 1. बृहद्वत्ति, पत्र 109 2. (क) वही, पत्र 109-110 (ख) उत्तरा. (साध्वी चन्दना), पृ. 22 3. (क) तत्त्वार्थ. सर्वार्थसिद्धि 9 / 9 / 424 (ख) पंचाशक, 13 विवरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy