________________ द्वितीय अध्ययन : परीषह-प्रविभक्ति] [43 सहन-) सामर्थ्यवान् भिक्षु (संयम-) मर्यादा को भंग न करे (हर्ष-विषाद न करे), पापदृष्टि वाला साधु ही (हर्ष-विषाद से अभिभूत हो कर) मर्यादा-भंग करता है / 23. पइरिक्कुवस्सयं लधुकल्लाणं अदु पावगं / 'किमेगरायं करिस्सई' एवं तत्थऽहियासए // [23] प्रतिरिक्त (स्त्री आदि की बाधा से रहित एकान्त) उपाश्रय पाकर, भले ही वह अच्छा हो या बुरा; उसमें मुनि समभावपूर्वक यह सोच कर रहे कि यह एक रात क्या करेगी ? (---एक रात्रि में मेरा क्या बनता-बिगड़ता है ?) तथा जो भी सुख-दुःख हो उसे सहन करे। विवेचन शय्यापरीषह : स्वरूप और विजय--स्वाध्याय, ध्यान और विहार के श्रम के कारण थक कर खर (खुरदरा), विषम (ऊबड़-खाबड़) प्रचुर मात्रा में कंकड़ों, पत्थर के टुकड़ों या खप्परों से व्याप्त, अतिशीत या अतिउष्ण भूमि वाले गंदे या सीलन भरे, कोमल या कठोर प्रदेश वाले स्थान या उपाश्रय को पाकर प्रात-रौद्रध्यानरहित होकर समभाव से साधक का निद्रा ले लेना, यथाकृत एक पार्श्वभाग से या दण्डायित आदि रूप से शयन करना, करवट लेने से प्राणियों को होने वाली बाधा के निवारणार्थ जो गिरे हुए लकड़ी के टुकड़े के समान या मुर्दे के समान करवट न बदलना, अपना चित्त ज्ञानभावना में लगाना, देव-मनुष्य-तिर्यञ्चकृत उपसर्गों से विचलित न होना, अनियतकालिक शय्याकृत (आवासस्थान सम्बन्धी) बाधा को सह लेना शय्यापरीषहजय है। जो साधक शय्या सम्बन्धी इन बाधाओं को सह लेता है, वह शय्यापरीषहविजयी है।' उच्चावयाहि : तीन अर्थ-(१) ऊँची-नीची, (2) शीत, पातप, वर्षा आदि के निवारक गुणों के कारण या सहृदय सेवाभावी शय्यातर के कारण उच्च और इन से विपरीत जो सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि के निवारण के अयोग्य, बिलकुल खुली, जिसका शय्यातर कठोर एवं छिद्रान्वेषी हो, वह नीची (अवचा), (3) नाना प्रकार की / ' नाइवेलं विहन्नेज्जा : तीन अर्थ-(१) स्वाध्याय आदि की वेला (समय) का अतिक्रमण करके समाचारी भंग न करे, (2) यहाँ मैं शीतादि से पीड़ित हूँ, यह सोच कर वेला---समतावृत्ति का अतिक्रमण करके अन्यत्र-दूसरे स्थान में न जाए, (3) उच्च--उत्तम शय्या (उपाश्रय) को पाकर'अहो ! मैं कितना भाग्यशाली हूँ कि मुझे सभी ऋतुओं में सुखकारी ऐसी अच्छी शय्या (वसति या उपाश्रय) मिला है,' अथवा अवच (खराब) शय्या पाकर—'माह ! मैं कितना अभागा हूँ कि मुझे शीतादि निवारक शय्या भी नहीं मिली, इस प्रकार हर्षविषादादि करके समतारूप अति उत्कृष्ट मर्यादा का विघात-उल्लंघन न करे / कल्लाणं अदु पावगं : तीन अर्थ—(१) कल्याण-शोभन, अथवा पापक-अशोभन–धूल, कचरा, गन्दगी आदि से भरा होने से खराब, (2) साताकारी-असाताकारी, अथवा पारिपाश्विक वातावरण अच्छा होने से शान्ति एवं समाधिदायक होने से मंगलकारी और पारिपाश्विक वातावरण गन्दा, कामोत्तेजक, अश्लील, हिंसादि-प्रोत्साहक होने से तथा कोलाहल होने से अशान्तिप्रद एवं 1. (क) पंचसंग्रह, द्वार 4 (ख) सर्वार्थसिद्धि 9 / 9 / 423 / 11 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 109 3, बही, पत्र 109 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org