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________________ 42] [उत्तराध्ययनसून असमाणो : 'असमान' के 4 अर्थ-(१) गृहस्थ से असदृश (विलक्ष), (2) अतुल्यविहारी-जिसका विहार अन्यतीथिकों के तुल्य नहीं है, (3) अ+समान –मान = अहंकार (आडम्बर) से रहित होकर, (4) असन् (असन्निहित)-जिसके पास कुछ भी संग्रह नहीं है--संग्रहरहित होकर / ' (10) निषद्यापरीषह 20. सुसाणे सुन्नगारे वा रुक्ख-मूले व एगओ। अकुक्कुप्रो निसीएज्जा न य वित्तासए परं॥ [20] श्मशान में, शून्यागार (सूने घर) में अथवा वृक्ष के मूल में एकाकी (रागद्व परहित) मुनि अचपलभाव से बैठे; आसपास के अन्य किसी भी प्राणी को त्रास न दे / 21. तत्थ से चिट्ठमाणस्स उवसग्गाभिधारए / संका-भीओ न गच्छेज्जा उद्वित्ता अन्नमासणं // [21] वहाँ (उन स्थानों में) बैठे हुए यदि कोई उपसर्ग या जाए तो उसे समभाव से धारण करे, (कि 'ये मेरे अजर अमर अविनाशी आत्मा की क्या क्षति करेंगे?') अनिष्ट की शंका से भयभीत हो कर वहाँ से उठ कर अन्य स्थान (आसन) पर न जाए। विवेचन–निषद्यापरिषह : स्वरूप और विजय-निषद्या के अर्थ---उपाश्रय एवं बैठना ये दो हैं / प्रस्तुत में बैठना अर्थ ही अभिप्रेत है / अनभ्यस्त एवं अपरिचित श्मशान, उद्यान, गुफा, सूना घर, वृक्षमूल या टूटा-फूटा खण्डहर या ऊबड़-खाबड़ स्थान आदि स्त्री-पशु-नपुंसकरहित स्थानों में रहना, नियत काल तक निषद्या (आसन) लगा कर बैठना, वीरासन, आम्रकुब्जासन आदि ग्रासन लगा कर शरीर से अविचल रहना, सूर्य के प्रकाश और अपने इन्द्रियज्ञान से परीक्षित प्रदेश में नियमानुष्ठान (प्रतिमा या कायोत्सर्गादि साधना) करना, वहाँ सिंह, व्याघ्र प्रादि की नाना प्रकार की भयंकर ध्वनि सुन कर भी भय न होना, नाना प्रकार का उपसर्ग (दिव्य, तैर्यञ्च और मानुष्य) सहन करते हुए मोक्ष मार्ग से च्युत न होना; इस प्रकार निषद्याकृत बाधा का सहन करना निषद्यापरीषहजय है। जो इस निषद्याजनित बाधाओं को समभावपूर्वक सहन करता है, वह निषद्यापरीषह-विजयी कहलाता है।' सुसाणे सुन्नगारे रुक्खमूले-इन तीनों का अर्थ स्पष्ट है। ये तीनों एकान्त स्थान के द्योतक हैं / इनमें विशिष्ट साधना करने वाले मुनि ही रहते हैं / 3 (11) शय्यापरीषह 22. उच्चावयाहि सेज्जाहि तवस्सी भिक्खु थामवं / नाइवेलं विहन्नेजा पाव विट्ठी विहन्नई / / [22] ऊँची-नीची (--अच्छी-बुरी) शय्या (उपाश्रय) के कारण तपस्वी और (शीतातपादि 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 107 2. (क) पंचसंग्रह, द्वार 4 3. (क) दशबैकालिक 1012 (ख) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. 67 (ख) तत्त्वार्थ. सर्वार्थ सिद्धि 9 / 9 / 42317 (ख) उत्तरा. मूल, अ 15 // 4, 16 / 3 / 1, 32 / 12, 13316, 3514-9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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