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________________ [41 द्वितीय अध्ययन : परीषह-प्रविभक्ति] (6) चर्या परीषह 18. एग एव चरे लाढे अभिभूय परीसहे / गामे वा नगरे वावि निगमे वा रायहाणिए / [18] साधुजीवन की विभिन्न चर्याओं से लाढ (--प्रशंसित या पाढय) मुनि परीषहों को पराजित करता हुआ एकाकी (राग-द्वेष से रहित) ही ग्राम में, नगर में, निगम में अथवा राजधानी में विचरण करे / 19. असमाणो चरे भिक्खू नेव कुज्जा परिग्गहं / असंसत्तो गिहत्थेहिं अणिएग्रो परिव्वए // [16] भिक्षु (गृहस्थादि से) असमान (असाधारण--विलक्षण) होकर विहार करे। ग्राम, गर आदि में या अाहारादि किसी पदार्थ में ममत्वबुद्धिरूप परिग्रह न करे। वह गहस्थों से असंसक्त (असम्बद्व-निर्लिप्त) होकर रहे तथा सर्वत्र अनिकेत (गृहबन्धन से मुक्त) रहता हुआ परिभ्रमण करे / विवेचन-चर्यापरीषह स्वरूप और विजय-बन्धमोक्षतत्त्वज्ञ तथा वायु की तरह निःसंगता और अप्रतिवद्धता धारण करके मासकल्पादि नियमानुसार तपश्चर्यादि के कारण अत्यन्त अशक्त होने पर भी पैदल विहार करना, पैर में कांटे, कंकड़ आदि चभने से खेद उत्पन्न होने पर भी पूर्वभक्त यान-वाहनादि का स्मरण न करना तथा यथाकाल सभी साधुचर्याओं का सम्यक् परिपालन करना चर्यापरीषह है। इस परीषह का विजयी चर्यापरीषहविजयी है।' लाढे चार अर्थ --- (1) प्रासुक एषणीय आहार से अपना निर्वाह करने वाला, (2) साधुगुणों के द्वारा जीवनयापन करने वाला, (3) प्रशंसावाचक देशीय पद अर्थात्---शुद्ध चर्याओं के कारण प्रशंसित, (4) लाढ - राढदेश, जहाँ भगवान् महावीर ने विचरण करके घोर उपसर्ग सहन किये थे / एग एव : चार अर्थ-(१) एकाकी - राग-द्वेषविरहित, (2) निपुण, गुणी सहायक के प्रभाव में अकेला विचरण करने वाला गीतार्थ साधु, (3) प्रतिमा धारण करके तदनुसार आचरण करने के लिए जाने वाला अकेला साधु, (4) कर्मसमूह नष्ट होने से मोक्षगामी या कर्मक्षय करने हेतु मोक्ष प्राप्तियोग्य अनुष्ठान के लिये जाने वाला एकाकी साधु / ' 1. (क) पंचसंग्रह, द्वार 4 (ख) तत्त्वार्थ. सर्वार्थसिद्धि 9 / 9 / 42314 2. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 107 लाढेत्ति –लाढयति प्रासुकैषणीयाहारेण, साधुगुणैर्वाऽऽत्मानं यापयतीति लाढः प्रशंसाभिधायि वा देशीपदमेतत् / (ख) उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 66 (ग) सुखबोधा, पत्र 31 (ग) लाढेसु अ उवसग्गा घोरा। ----यावश्यकनियुक्ति, गा. 482 3. एग एवेति रागद्वषविरहितः, चरेत अप्रतिबद्धविहारेण विहरेत / सहायवैकल्यतो वा एकस्तथाविधः गीतार्थो, यथोक्तम् न वा लभेज्जा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा। एक्को वि पावाई बिवज्जयंतो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो / -बृहद्वत्ति, पत्र 107 ---उत्त. 32, गा.५ एकः उतरूपः स एवैककः, एको वा प्रतिमाप्रतिपत्त्यादी गच्छतीत्येकग:। एक वा कर्मसाहित्यविगमतो मोक्षं गच्छति-तत्प्राप्तियोग्यानुष्ठानप्रवृत्तर्यातीत्येकगः। -बहदवत्ति, पत्र 109 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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