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________________ 40] [उत्तराध्ययनसून (8) स्त्रीपरीषह 16. 'संगो एस मणुस्साणं जानो लोगंमि इस्थिओ।' जस्स एया परिन्नाया सुकडं तस्स सामण्णं // [16.] 'लोक में जो स्त्रियाँ हैं. वे पुरुषों के लिए संग(–आसक्ति की कारण ) हैं जिस साधक को ये यथार्थरूप में परिज्ञात हो जाता है, उसका श्रामण्य-साधुत्व सफल (सुकृत) होता है / 17. एवमादाय मेहावी 'पंकभूया उ इथिओ / नो ताहि विणिहन्नेज्जा चरेज्जत्तगवेसए / [17.] ब्रह्मचारी के लिये स्त्रियाँ पंक (-दलदल) के समान (फंसा देने वाली) हैं; इस बात को बुद्धि से भली भांति ग्रहण करके मेधावी मुनि उनसे अपने संयमी जीवन का विनिघात (विनाश) न होने दे, किन्तु अात्मस्वरूप की गवेषणा करता हुमा (श्रमणधर्म में) विचरण करे / विवेचन-स्त्रीपरीषह : स्वरूप और विजय एकान्त बगीचे या भवत आदि स्थानों में नवयौवना, मदविभ्रान्ता और कामोन्मत्ता एवं मन के शुभ संकल्पों का अपहरण करती हुई ललनाओं द्वारा बाधा पहँचाने पर इन्द्रियों और मन के विकारों पर नियंत्रण कर लेना तथा उनकी मंद कोमल सम्भाषण, तिरछी नजरों से देखना, हँसना, मदभरी चाल से चलना और कामबाण मारना ग्रादि को 'ये रक्त-मांस आदि अशुचि का पिण्ड हैं, मोक्षमार्ग की अर्गला हैं। इस प्रकार के चिन्तन से तथा मन से, उनके प्रति कामबुद्धि न करके विफल कर देना स्त्रीपरीषहजय है और इस प्रकार चिन्तन करने वाले साधक स्त्रीपरीषहविजयी हैं।' 'परिमाया' शब्द को व्याख्या-'इहलोक-परलोक में ये महात् अनर्थहेतु हैं। इस प्रकार ज्ञपरिज्ञा से सब प्रकार से स्त्रियों का स्वरूप विदित कर लेना और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से मन से उनकी प्रासक्ति त्याग देना, परिज्ञात कहलाता है। __ उदाहरण—कोशागणिकासक्त स्थूलभद्र ने विरक्त होकर प्राचार्य सम्भूतिविजय से दीक्षा ले ली। जब चातुर्मास का समय निकट अाया तो गुरु की ग्राज्ञा से स्थूलभद्रमुनि ने गणिकागृह में, शेष तीनों गुरुभाइयों में से एक ने सर्प की बांबी पर, एक ने सिंह की गुफा में और एक ने कुएँ के किनारे पर चातुर्मास किया। जब चारों मुनि चातुर्मास पूर्ण करके गुरु के पास पहुंचे तो गुरु ने स्थूलभद्र के कार्य को 'दुष्कर—दुष्करकारी' बताया, शेष तीनों शिष्यों को केवल दुष्करकारी कहा। पूछने पर समाधान किया कि सर्प, सिंह या कप-तटस्थान तो सिर्फ शरीर को हानि पहुँचा सकते थे, किन्तु गणिकासंग तो ज्ञान-दर्शन-चारित्र का सर्वथा उन्मूलन कर सकता था। स्थूलभद्र का यह कार्य तो तीक्ष्ण खड्ग की धार पर चलने के समान या अग्नि में कूद कर भी न जलने जैसा है / यह स्त्रीपरीषहविजय है। परन्तु एक साधु इस वचन पर अश्रद्धा ला कर अगली बार वेश्यागृह में चातुर्मास बिताने अाया, मगर असफल हुअा। वह स्त्रीपरीषह में पराजित हो गया। 1. [क] पंचसंग्रह, द्वार 4, [ख] सर्वार्थसिद्धि, 9 / 9 / 9 / 422111 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 96 3. वही, पत्र 96-97 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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