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________________ द्वितीय अध्ययन : परीषह-प्रविभक्ति] [39 धम्मारामे--दो अर्थ (1) धर्मारामः-जो साधक सब ओर से धर्म में रमण करता है, (2) धर्मारामः--पालनीय धर्म ही जिस साधक के लिए आनन्द का कारण होने से आराम (बगीचा) है, वह / ' उदाहरण-कौशाम्बी में तापसश्रेष्ठी मर कर अपने घर में ही 'समर' बना / एक दिन उसके पूत्रो ने पर को मार डाला. वह मर कर वहीं सर्प हया। उसे जातिस्मरणज्ञान हा / पूर्वभव के पुत्रों ने उसे भी मार दिया / मर कर वह अपने पुत्र का पुत्र हुआ / जातिस्मरणज्ञान होने से वह संकोचवश मूक रहा / एक बार चार ज्ञान के धारक प्राचार्य ने उसको स्थिति जान कर उसे प्रतिबोध दिया, वह श्रावक बना / एक अमात्यपुत्र पूर्वजन्म में साधु था, मरकर देव बना था, वही उक्त मूक के पास आया और बोला-मैं तुम्हारा भाई बनंगा, तुम मुझे धर्मबोध देना / मूक ने स्वीकार किया। वह देव मूक की माता की कुक्षि से जन्मा / मूक उसे साधुदर्शन आदि को ले जाता परन्तु वह दुर्लभबोधि किसी तरह भी प्रतिबुद्ध न हुआ। अतः मूक ने दीक्षा ले ली। चारित्रपालन कर वह देव बना / मूक के जीव देव ने अपनी माया से अपने भाई को प्रतिबोध देने के लिए जलोदर-रोगी बना दिया। स्वयं वैद्य के रूप में पाया / जलोदर-रोगी ने उसे रोगनिवारण के लिए कहा तो वैद्य रूप देव ने कहा'तुम्हारा असाध्य रोग मैं एक ही शर्त पर मिटा सकता हूँ, वह यह कि तुम पीछे-पीछे यह अौषध का बोरा उठा कर चलो।' रोगी ने स्वीकार किया / वैद्यरूप देव ने उसका जलोदररोग शान्त कर दिया। अब वह वैद्यरूप देव के पीछे-पीछे औषधों के भारी भरकम बोरे को उठाए-उठाए च छोड़कर वह घर नहीं जा सकता था / जाऊँगा तो पुनः जलोदररोगी बन जाऊँगा, यह डर था / एक गाँव में कुछ साधु स्वाध्याय कर रहे थे। वैद्यरूप देव ने उससे कहा-'यदि तू इससे दीक्षा ले लेगा तो मैं तुझे शर्त से मुक्त कर दूंगा।' बोझ ढोने से घबराए हुए मूक भ्राता ने दीक्षा ले ली। वैद्यदेव के जाते ही उसने दीक्षा छोड़ दी / देव ने उसको पुन: जलोदररोगी बना दिया और दीक्षा अंगीकार करने पर ही उस वैद्यरूपधारी देव ने उसे छोड़ा / यों तीन बार उसने दीक्षा ग्रहण करने और छोड़ने का नाटक किया / चौथी बार वैद्यरूपधारी देव साथ रहा / अाग से जलते हुए एक गाँव में वह घास हाथ में लेकर प्रवेश करने लगा तो उक्त साधू ने कहा-'जलते हए गाँव में क्यों प्रवेश कर रहे हो?' उसने कहा---'पाप मना करने पर भी कषायों से जलते हुए गृहवास में क्यों बार-बार प्रवेश करते हैं ?' वह इस पर भी नहीं समझा। दोनों एक अटवी में पहँचे, तब देव उन्मार्ग से चलने लगा। इस पर साधु ने कहा- 'उन्मार्ग से क्यों जाते हो?', देव बोला-'आप विशुद्ध संयम मार्ग को छोड़ कर प्राधि-व्याधिरूप कण्टकाकीर्ण संसारमार्ग में क्यों जाते हैं ?' इस पर भी वह नहीं समझा। फिर दोनों एक यक्षायतन में पहुँचे / यक्ष को बार-बार अर्चा करने पर भी वह अधोमख गिर जाता था। इस पर साधु ने कहा-'यह अधम यक्ष पूजित होने पर भी अधोमुख क्यों गिर जाता है ?' देव ने कहा-.. 'आप इतने वन्दित-पूजित होने पर भी बार-बार संयममार्ग से क्यों गिर जाते हैं ?' इस पर साधु चौंका / परिचय पूछा / देव ने अपना विस्तृत परिचय दिया / उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया और अब उसकी संयम में रुचि एवं दृढता हो गई। जिस प्रकार मूक भ्राता की देवप्रतिबोध से संयम में रति हुई; इसी प्रकार साधु को संयम में परति पा जाए तो उस पर ज्ञानबल से विजय पाना चाहिए।' 1. वृहद्वृत्ति, यत्र 94 2. बही, पत्र 95 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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