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________________ 38] [उत्तराध्ययनसूत्र रात को हिमपात, अोस आदि के जीवों की हिंसा से बचने तथा वर्षाकाल में जल-जीवों से बचने के लिए वस्त्र पहनने-अोढ़ने का भी विधान मिलता है। स्थानांगसूत्र में पांच कारणों से अचेलक को प्रशस्त माना गया है—(१) उसके प्रतिलेखना अल्प होती है, (2) उपकरण तथा कषाय का लाघव होता है, (3) उसका रूप वैश्वासिक (विश्वस्त) होता है, (4) उसका तप (उपकरणसंलीनता रूप) जिनानुमत होता है और (5) विपुल इन्द्रियनिग्रह होता है। __इसी अध्ययन की 34 और 35 वीं गाथा में जो अचेलकत्व फलित होता है वह भी जिनकल्पी या विशिष्ट अभिग्रहधारी मुनि की अपेक्षा से है / (7) परतिपरीषह 14. गामाणुगामं रीयन्तं अणगारं अकिंचणं / अरई अणुप्पविसे तं तितिक्खे परीसहं // [14] एक गाँव से दूसरे गाँव विचरण करते हुए अकिंचन (निर्ग्रन्थ) अनगार के मन में यदि कभी संयम के प्रति अरति (-अरुचि = अधृति) उत्पन्न हो जाए तो उस परीषह को सहन करे। 15. अरई पिट्ठो किच्चा विरए प्राय-रक्खिए / धम्मारामे निरारम्भे उवसन्ते मुणी चरे // [15] (हिंसा आदि से) विरत, (दुर्गतिहेतु दुर्ध्यानादि से) प्रात्मा की रक्षा करने वाला धर्म में रतिमान् (प्रारम्भप्रवृत्ति से दूर) निरारम्भ मुनि (संयम में) अति को पीठ देकर (अरुचि से विमुख होकर) उपशान्त हो कर विचरण करे / विवेचन–अरतिपरीषह : स्वरूप और विजय-गमनागमन, विहार, भिक्षाचर्या, साधुसमाचारीपालन, अहिंसादिपालन, समिति-गुप्ति-पालन आदि संयमसाधना के मार्ग में अनेक कठिनाइयों-असुविधाओं के कारण अरुचि न लाते हुए धैर्यपूर्वक उसमें रस लेना, धर्मरूपी आराम (बाग) में स्वस्थचित्त होकर सदैव विचरण करना, अरतिपरीषहजय है। अरतिमोहनीयकर्मजन्य मनोविकार है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार जो संयमी साधु इन्द्रियों के इष्टविषय-सम्बन्ध के प्रति निरुत्सूक है, जो गीत-नृत्य-वादित्र आदि से रहित शून्य घर, देवकुल, तरकोटर या शिला, गुफा आदि में स्वाध्याय, ध्यान और भावना में रत है, पहले देखे हुए, सुने हुए और अनुभव किये हुए विषय-भोगों के स्मरण, विषय-भोग सम्बन्धी कथा के श्रवण तथा काम-शर प्रवेश के लिए जिसका हृदय निश्छिद्र है एवं जो प्राणियों पर सदैव दयावान् है, वही अरतिपरीषहजयी है।४ 1. तह निसि चाउकालं सज्झाय-माणसाहणमिसीणं / हिम-महिया वासोसारयाइरक्खाणिमित्तं तु // -बृहद्वृत्ति , पत्र 96 2. स्थानांग, स्थान 5, उ. 3, सू. 455 3. उत्तरा. अ. 2, गा. 34-35 4. कि अावश्यक, अ. 4 [ख] तत्त्वार्थ. सर्वार्थ सिद्धि, 9 / 9 / 41217 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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