________________ द्वितीय अध्ययन : परीषह-प्रविभक्ति] [37 उदाहरण-चम्पानगरी के जितशत्रु राजा के पुत्र युवराज सुमनुभद्र ने सांसारिक कामभोगों से विरक्त होकर धर्मघोष आचार्य से दीक्षा ली। एकलविहारप्रतिमा अंगीकार करके वह एक बार सोलन वाले निचले प्रदेश में विहार करता हुआ शरत् काल में एक अटवी में रात को रह गया / रात भर में उसे भयंकर मच्छरों ने काटा; फिर भी समभाव से उसने सहन किया / फलतः उसी रात्रि में कालधर्म पा कर वह देवलोक में गया / ' (6) अचेलपरीषह--- 12. 'परिजुण्णेहि वत्थेहि होक्खामि ति अचेलए।' अदुवा सचेलए होक्ख' इइ भिक्खू न चिन्तए // [12] 'वस्त्रों के अत्यन्त जीर्ण हो जाने से अब मैं अचेलक (निर्वस्त्र-नग्न) हो जाऊँगा; अथवा अहा ! नये वस्त्र मिलने पर फिर मैं सचेलक हो जाऊँगा'; मुनि ऐसा चिन्तन न करे। (अर्थात्-दैन्य और हर्ष दोनों प्रकार का भाव न लाए। 13. 'एगयाञ्चेलए होइ सचेले यावि एगया।' एयं धम्महियं नच्चा नाणी नो परिदेवए / [13] विभिन्न एवं विशिष्ट परिस्थितियों के कारण साधु कभी अचेलक भी होता है और कभी सचेलक भी होता है। दोनों ही स्थितियाँ यथाप्रसंग मुनिधर्म के लिए हितकर समझ कर ज्ञानवान् मुनि (वस्त्र न मिलने पर) खिन्न न हो। विवेचन--एगया . शब्द की व्याख्या-गाथा में प्रयुक्त एगया (एकदा) शब्द से मुनि की जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक अवस्थाएँ तथा वस्त्राभाव एवं सवस्त्र आदि अवस्थाएँ परिलक्षित होती हैं। चूर्णिकार के अनुसार मुनि जब जिनकल्प-अवस्था को स्वीकार करता है तब अचेलक होता है / अथवा स्थविरकल्प-अवस्था में वह दिन में, ग्रीष्मऋतु में या वर्षाऋतु में वषा नहीं पड़ती हो तब अचेलक रहता है। शिशिररात्र (पौष और माध), वर्षारात्र (भाद्रपद और आश्विन), वर्षा गिरते समय तथा प्रभातकाल में भिक्षा के लिए जाते समय वह सचेलक रहता है। बहवृत्ति के अनुसार जिनकल्प-अवस्था में मुनि अचेलक होता है तथा स्थविरकल्प-अवस्था में भी जब वस्त्र दुर्लभ हो जाते हैं या सर्वथा वस्त्र मिलते नहीं या वस्त्र उपलब्ध होने पर भी वर्षाऋतु के विना उन्हें धारण न करने की परम्परा होने से या वस्त्रों के जीर्णशीर्ण हो जाने पर वह अचेलक हो जाता है। इस पर से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि स्थविरकल्पी मुनि अपने साधनाकाल में ही अचेलक और सचेलक दोनों अवस्थाओं में रहता है। इसी का समर्थन प्राचारांगसूत्र में मिलता है'हेमन्त के चले जाने और ग्रीष्म के आ जाने पर मुनि एकशाटक (एक चादर धारण करने वाला) या अचेल हो जाए। 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 91 2. (क) उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 60 (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र 92-93 (ग) सुखबोधा., पत्र 22 3. प्राचारांग 1 / 8 / 4 / 50-52 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org