________________ [उत्तराध्ययनसूत्र कर आया, अत्यन्त श्रद्धावश माता के चरणों में गिर कर बोला-'माँ ! मैं हूँ, आपका अर्हन्नक / ' स्वस्थचित्त माता ने उसे कहा-'वत्स ! तू भव्यकुलोत्पन्न है, तेरी ऐसी दशा कैसे हुई ?' अर्हनक बोला-'माँ ! मैं 'चारित्रपालन नहीं कर सकता !' माता ने कहा-'तो फिर अनशन करके ऐसे असंयमी जीवन का त्याग करना अच्छा है।' अर्हनक ने साध्वी माता के वचनों से प्रेरित होकर तपतपाती गर्म शिला पर लेट कर पादपोपगमन अनशन कर लिया। इस प्रकार उष्णपरीषह को सम्यक प्रकार से सहने के कारण वह समाधिमरणपूर्वक भर कर आराधक बना।' (5) दंशमशक-परीषह 10. पुट्ठो य दंस-मसएहि-समरेव महामुणो। नागो संगाम-सीसे वा सूरो अभिहणे परं // [10] महामुनि डांस एवं मच्छरों के उपद्रव से पीड़ित होने पर भी समभाव में ही स्थिर रहे / जैसे-युद्ध के मोर्चे पर (अगली पंक्ति में) रहा हुआ शूर हाथी (बाणों की परवाह न करता हुआ) शत्रुओं का हनन करता है, वैसे ही शूरवीर मुनि भी परीषह-बाणों की कुछ भी परवा न करता हुआ क्रोधादि (या रागद्वेषादि) अन्तरंग शत्रुओं का दमन करे। 11. न संतसे न वारेज्जा मणं पि न पओसए। उवेहे न हणे पाणे भुंजन्ते मंस-सोणियं // [11] (दंश-मशकपरीषहविजेता) भिक्षु उन (दंश-मशकों के उपद्रव) से संत्रस्त (-उद्विग्न) न हो और न उन्हें हटाए / (यहाँ तक कि) मन में भी उनके प्रति द्वेष न लाए। मांस और रक्त खानेपीने पर भी उपेक्षाभाव (उदासीनता) रखे, उन प्राणियों को मारे नहीं। विवेचन-दंशमशकपरीषह : स्वरूप और व्याख्या-यहाँ दंश-मशकपद से उपलक्षण से जू, लीख, खटमल, पिस्सू, मक्खी, छोटी मक्खी, कीट, चींटी, बिच्छू आदि का ग्रहण करना चाहिए / शान्त्याचार्य ने मांस काटने और रक्त पीने वाले अत्यन्त पीड़क-(दंशक) श्रृगाल, भेड़िये, गीध, कौए आदि तथा भयंकर हिंस्र वन्य प्राणियों को भी 'दंशमशक' के अन्तर्गत गिनाया है। अतः देह को पीड़ा पहुँचाने वाले उपर्युक्त दंश-मशकादि प्राणियों के द्वारा मांस काटने, रक्त चूसने या अन्य प्रकार से पीड़ा पहुँचाने पर भी मुनि द्वारा उन्हें हटाने-भगाने के लिए *aa आदि न करना या पंखे आदि से न हटाना, उन पर द्वेषभाव न लाना, न मारना, ये बेचारे अज्ञानी आहारार्थी हैं, मेरा शरीर इनके लिए भोज्य है, भले ही खाएँ, इस प्रकार उपेक्षा रखना दंशमशकपरीषहजय है। उपयूक्त शरीरपीड़क प्राणियों द्वारा की गई बाधाओं को विना प्रतीकार किये सहन करता है, मन-वचन-काय उन्हें बाधा नहीं पहुंचाता, उस वेदना को समभाव से सह लेता है, वही मुनि दंशमशकपरीषहविजयी है। न संतसे': दो अर्थ-(१) देशमशक आदि से संत्रस्त-उद्विग्न–क्षुब्ध न हो, (2) दंशमशकादि से व्यथित किये जाने पर भी हाथ, पैर आदि अंगों को हिलाए नहीं / 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 90 2. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 91 (ख) पंचसंग्रह, द्वार 4, (ग) सर्वार्थ सिद्धि 9 / 9 / 421110 3. (क) न संबसेत नोविजेत् दंशादिभ्य इति गम्यते, यद्वाऽनेकार्थत्वाद्धातूनां न कम्पयेतैस्तुद्यमानोऽपि अंगानीति शेषः ।-बहदवत्ति, पत्र 91 (ख) न संत्रसति अंगानि कम्पयति विक्षिपति वा ।--उत्तरा. चणि पृ. 59 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org