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________________ द्वितीय अध्ययन : परीषह-प्रविभक्ति] [35 ग्रीष्मकालीन सूर्य के परिताप से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी मुनि ठंडक, शीतकाल आदि के सुख के लिए विलाप न करे (-- व्याकुल न बने)। 9. उण्हाहितत्ते मेहावी सिणाणं नो वि पत्थए। गायं नो परिसिचेज्जा न वीएज्जा य अप्पयं // [] गर्मी से संतप्त होने पर भी मेधावी मुनि नहाने की इच्छा न करे और न ही जल से शरीर को सींचे-(गीला करे) तथा पंखे आदि से थोड़ी-सी भी (अपने शरीर पर) हवा न करे / विवेचन---उष्णपरिषह : स्वरूप एवं विजय-दाह, ग्रीष्मकालीन सूर्य किरणों का प्रखर ताप, लू, तपी हुई भूमि, शिला आदि की उष्णता से तप्त मुनि द्वारा उष्णता की निन्दा न करना, छाया आदि ठंडक की इच्छा न करना, न उसकी याद करना, पंखे आदि से हवा न करना, अपने शिर को ठंडे पानी से गीला न करना; इत्यादि प्रकार से उष्णता की वेदना को समभाव से सहन करना, उष्णपरीषहजय है। राजवातिक के अनुसार निर्वात और निर्जल तथा ग्रीष्मकालीन सूर्य की किरणों से सख कर पत्तों के गिर जाने से छायारहित वक्षों से युक्त वन में स्वेच्छा से जिसका निवास है, अथवा अनशन आदि आभ्यन्तर कारणवश जिसे दाह उत्पन्न हुई है तथा दवाग्निजन्य दाह, अतिकठोर वायु (ल), और आतप के कारण जिसका गला और तालु सूख रहे हैं, उनके प्रतीकार के बहुत से उपायों को जानता हुआ भी उनकी चिन्ता नहीं करता, जिसका चित्त प्राणियों की पीड़ा के परिहार में संलग्न है, वही मुनि उष्णपरीषहजयी है।' परिदाहेण-दो प्रकार के दाह हैं-बाह्य और प्रान्तरिक / पसीना, मैल आदि से शरीर में होने वाला दाह बाह्य परिदाह है और पिपासाजनित दाह आन्तरिक परिदाह है। यहाँ दोनों प्रकार के परिदाह गृहीत हैं। अप्पयं—दो रूपः दो अर्थ--आत्मानं-अपने शरीर को, अथवा अल्पक-थोड़ी-सी भी / दृष्टान्त-तगरा नगरी में अर्हन्मित्र आचार्य के पास दत्त नामक वणिक अपनी पत्नी भद्रा और पुत्र अन्त्रिक के साथ प्रबजित हुआ। दीक्षा लेने के बाद पिता ही अर्हन्नक की सब प्रकार से सेवा करता था। वह भिक्षा के लिए भी नहीं जाता और न ही कहीं विहार करता, अतः अत्यन्त सुकुमार एवं सुखशील हो गया। दत्त मुनि के स्वर्गवास के बाद अन्य साधुओं द्वारा प्रेरित करने पर वह बालकमुनि अर्हन्त्रक गर्मी के दिनों में सख्त धूप में भिक्षा के लिए निकला। धूप से बचने के लिए वह बडे-बड़े मकानों की छाया में बैठता-उठता भिक्षा के लिए जा रहा था। तभी उसके सुन्दर रूप को देख कर एक सुन्दरी ने उसे बुलाया और विविध भोगसाधनों के प्रलोभन में फंसा कर वश में कर लिया। अर्हनक भी उस सुन्दरी के मोह में फंस कर विषयासक्त हो गया। उसकी माता भद्रा साध्वी पुत्रमोह में पागल हो कर 'अहन्नक-अहन्नक' चिल्लाती हुई गली-गली में घूमने लगी। एक दिन गवाक्ष में बैठे हुए अर्हन्नक ने अपनी माता की आवाज सुनी तो वह महल से नीचे उतर 1. (क) आवश्यक मलयगिरि टोका अ. 2 (ख) तत्त्वार्थ राजवार्तिक. 9 / 9 / 7 / 609 / 12 2. परिदाहेन-बहिः स्वेदमलाभ्यां वह्निना वा, अन्तश्च तृषया जनितदाहस्वरूपेण / ____-बृहद्वृत्ति, पत्र 89 3. अप्पयं त्ति--'प्रात्मानमथवा अल्पमेवाल्पकम् कि पुनर्बहु / '-- बृहद्वृत्ति, पत्र 89 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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