________________ 34] [ उत्तराध्ययनसूत्र रूक्ष (अथवा अनासक्त) हो कर (ग्रामानुग्राम अथवा मुक्तिमार्ग में) विचरण करते हुए मुनि को एकदा (--शीतकाल आदि में) सर्दी सताती है, फिर भी मननशील मुनि जिनशासन (वीतराग की शिक्षाओं) को सुन (समझ) कर अपनी वेला (साध्वाचार-मर्यादा का अथवा स्वाध्याय आदि की वेला) का अतिक्रमण न करे। 7. 'न मे निवारणं अस्थि छवित्ताणं न विज्जई। अहं तु अग्गिं सेवामि'—इइ भिक्खू न चिन्तए / / [7] (शीतपरीषह से आक्रान्त होने पर) भिक्षु ऐसा न सोचे कि-'मेरे पास शीत के निवारण का साधन नहीं है तथा ठंड से शरीर की रक्षा करने के लिए कम्बल आदि वस्त्र भी नहीं हैं, तो क्यों न मैं अग्नि का सेवन कर लूं।' विवेचन--शीतपरीषह : स्वरूप-बंद मकान न मिलने से शीत से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी साधु द्वारा अकल्पनीय अथवा मर्यादा-उपरान्त वस्त्र न लेकर तथा अग्नि आदि न जला कर, न जलवा कर तथा अन्य लोगों द्वारा प्रज्वलित अग्नि का सेवन न कर के शीत के कष्ट को समभावपूर्वक सहना शीतपरीषह है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार-पक्षी के समान जिसके प्रावास निश्चित नहीं हैं, वृक्षमूल, चौपथ या शिलातल पर निवास करते हुए बर्फ के गिरने पर, ठंडी बर्फीली हवा के लगने पर उसका प्रतीकार करने की इच्छा से जो निवृत्त है, पहले अनुभव किये गए प्रतीकार के हेतुभूत पदार्थों का जो स्मरण नहीं करता, और जो ज्ञान-भावनारूपी गर्भागार में निवास करता है, उसका शीतपरीषहविजय प्रशंसनीय है।' __ दृष्टान्त राजगृह नगर के चार मित्रों ने भद्रबाहुस्वामी के पास दीक्षा ग्रहण की। शास्त्राध्ययन करके चारों ने एकलविहारप्रतिमा अंगीकार की। एक वार वे तृतीय प्रहर में भिक्षा लेकर लौट रहे थे। सर्दी का मौसम था। पहले मुनि को आते-आते चौथा प्रहर वैभारगिरि की गुफा के द्वार तक बीत गया। वह वहीं रह गया / दूसरा नगरोद्यान तक, तीसरा उद्यान के निकट पहुँचा और चौथा मुनि नगर के पास पहुंचा तब तक चौथा पहर समाप्त हो गया। अतः ये तीनों भी जहाँ पहुँचे थे वहीं ठहर गए। इनमें से सबसे पहले मुनि का, जो वैभारगिरि की गुफा के द्वार पर ठहरा था, भयंकर सर्दी से पीड़ित होकर रात्रि के प्रथम पहर में स्वर्गवास हो गया। दूसरा मुनि दूसरे पहर में, तीसरा तीसरे पहर में और चौथा मुनि चौथे पहर में स्वर्गवासी हुा / ये चारों शीतपरीषह सहने के कारण मर कर देव बने। इसी प्रकार प्रत्येक साधु-साध्वी को समतापूर्वक शीतपरीषह सहना चाहिए। (4) उष्णपरीषह 8. उसिण-परियावेणं परिदाहेण तज्जिए। घिसु वा परियावेणं सायं नो परिदेवए / [8] गर्म भूमि, शिला, लू आदि के परिताप से, पसीना, मैल या प्यास के दाह से अथवा 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 87 (ख) सर्वार्थसिद्धि 9 / 9 / 62113 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 87 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org