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________________ द्वितीय अध्ययन : परीषह-प्रविभक्ति] [ 33 पर, (यहाँ तक कि) मुख सूख जाने पर भी मुनि अदीनभाव से उस (पिपासा.) परीषह को सहन करे। विवेचन-प्यास की चाहे जितनी और चाहे जहाँ (बस्ती में या अटवी में) वेदना होने पर भी तत्त्वज्ञ साधु द्वारा अंगीकृत मर्यादा के विरुद्ध सचित्त जल न लेकर समभावपूर्वक उक्त वेदना को सहना पिपासा-परीषह है। 'सर्वार्थसिद्धि' में बताया गया है कि जो अतिरूक्ष आहार, ग्रीष्मकालीन पातप, पित्तज्वर और अनशन आदि के कारण उत्पन्न हुई तथा शरीर और इन्द्रियों का मंथन करने वाली पिपासा का (सचित्त जल पी कर) प्रतीकार करने में आदरभाव नहीं रखता और पिपासारूपी अग्नि को संतोषरूपी नए मिट्टी के घड़े में भरे हुए शीतल सुगन्धित समाधिरूपी जल से शान्त करता है, उसका पिपासापरीषहजय प्रशंसनीय है।' सीओदगं—का अर्थ 'ठंडा पानी' इतना ही करना भ्रान्तिमूलक है, क्योंकि ठंडा जल सचित्त भी होता है, अचित्त भी / अतः यहाँ शीतोदक अप्रासुक-सचित्त जल का सूचक है / वियडस्स-विकृत जल-अग्नि या क्षारीय पदार्थों आदि से विकृति को प्राप्त-शस्त्रपरिणत अचित्त पानी को कहते हैं। दृष्टान्त-उज्जयिनीवासी धनमित्र, अपने पुत्र धनशर्मा के साथ प्रवजित हुआ। एक दिन वे दोनों अन्य साधुओं के साथ एलकाक्ष नगर की ओर रवाना हुए। क्षुल्लक साधु अत्यन्त प्यासा था। उसका पिता धनभित्र मुनि उसके पीछे-पीछे चल रहा था। रास्ते में नदी आई। पिता ने कहा-..लो पुत्र, यह पानी पी लो। धनमित्र नदी पार करके एक ओर खड़ा रहा / धनशर्मा मुनि ने नदी को देख कर सोचा--"मैं इन जीवों को कैसे पी सकता हूँ ?' उसने पानी नहीं पिया। अतः वहीं समभाव से उसने शरीर छोड़ दिया। मर कर देव बना / उस देव ने साधुओं के लिए स्थानस्थान पर गोकूलों की रचना की और मूनियों को छाछ प्रादि देकर पिपासा शान्त की। सभी मुनिगण नगर में पहुँचे / पिछले गोकुल में एक मुनि अपना प्रासन भूल गए, अतः वापस लेने पाए, पर वहाँ न तो गोकुल था, न आसन। सभी साधुओं ने इसे देवमाया समझी / बाद में वह देव आकर अपने भूतपूर्व पिता (धनमित्र मुनि) को छोड़ कर अन्य सभी साधुओं को वन्दन करने लगा। धनमित्र मुनि को वन्दन न करने का कारण पूछने पर बताया कि 'इन्होंने मुझे कहा था कि तू नदी का पानी पी ले / यदि मैं उस समय सचित्त जल पी लेता तो संसार-परिभ्रमण करता।' यों कह कर देव लौट गया। इसी तरह पिपासापरीपह सहन करना चाहिए। (3) शीतपरीषह 6. चरन्तं विरयं लहं सीयं फुसइ एगया। नाइवेलं मुणी गच्छे सोच्चाणं जिणसासणं // [6] (अग्निसमारम्भादि से अथवा असंयम से) विरत और (स्निग्ध भोजनादि के अभाव में) 1. (क) आवश्य. मलयगिरि टीका 1 अ० (ख) सर्वार्थसिद्धि 9 / 9 / 420312 2. (क) शीतं शीतलं, स्वरूपस्थतोयोपलक्षणमेतत् ततः स्वकायादिशस्त्रानुपहतमप्रासुकमित्यर्थः / (ख) "वियडस्स त्ति'-- विकृतस्य वह्नयादिना विकारं प्रापितस्य, प्रासुकस्येति यावत् ; प्रक्रमादुदकस्य / ---बुहवृत्ति, पत्र 86 3. वही, पत्र 87 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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