________________ [25 प्रथम अध्ययन : विनयसूत्र]] सम्बुद्ध, (सम्यक् वस्तुतत्त्ववेत्ता) पूज्य आचार्य आदि उस पर प्रसन्न रहते हैं। प्रसन्न होकर वे उसे मोक्ष के प्रयोजनभूत (या अर्थगम्भीर) विपुल श्रुतज्ञान का लाभ करवाते हैं। 47. स पुज्जसत्थे सुविणीयसंसए मणोरई चिट्ठइ कम्म-संपया। तवोसमायारिसमाहिसंधुडे महज्जुई पंच वयाई पालिया // [47.] (गुरुजनों की प्रसन्नता से विपुल शास्त्रज्ञान प्राप्त) वह शिष्य पूज्यशास्त्र होता है, उसके समस्त संशय दूर हो जाते हैं / वह गुरु के मन को प्रीतिकर होता है तथा कर्मसम्पदा से युक्त ही कर रहता है। वह तप-समाचारी और समाधि से संवत (सम्पन्न हो जाता है तथा पांच महाव्रतों का पालन करके वह महान् द्युतिमान् (तपोदीप्ति-युक्त) हो जाता है। 48. स देव-गन्धव्व-मणुस्सयूइए चइत्तु देहं मलपंकपुव्वयं / सिद्ध वा हवइ सासए देवे वा अप्परए महिड्ढिए / -त्ति बेमि / [48.] देवों, गन्धवों और मनुष्यों से पूजित वह विनीत शिष्य मल-पंक-पूर्वक निर्मित इस देह को त्याग कर या तो शाश्वत सिद्ध (मुक्त) होता है, अथवा अल्प कर्मरज वाला महान् ऋद्धिसम्पन्न देव होता है / —ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-विनयो शिष्य को प्राप्त होने वाली बारह उपलब्धियाँ--(१) लोकव्यापी कीति, (2) धर्माचरणकर्ताओं के लिए आधारभूत होना, (3) पूज्यवरों की प्रसन्नता, (4) विनयाचरण से परिचित पूज्यों की प्रसन्नता से प्रचुर श्रुतज्ञान-प्राप्ति, (5) शास्त्रीयज्ञान की सम्माननीयता, (6) सर्वसंशय-निवृत्ति, (7) गुरुजनों के मन को रुचिकर, (8) कर्मसम्पदा की सम्पन्नता, (6) तपःसमाचारी एवं समाधि की सम्पन्नता, (10) पंचमहाव्रत पालन से महाद्युतिमत्ता, (11) देव-गन्धर्व-मानवपूजनीयता, (12) देहत्याग के पश्चात् सर्वथा मुक्त अथवा अल्पकर्मा महद्धिक देव होना / ' किच्चाणं यहाँ कृत्य शब्द का अर्थ है--उचित अनुष्ठान (स्वधर्मोचित आचरण) करने वाला अथवा कलुषित अन्तःकरणवृत्ति वाले विनयाचरण से दूर लोगों से पृथक् रहने वाला। अट्टियंसुयं-दो अर्थ-(१) अर्थ अर्थात् मोक्ष जिसका प्रयोजन हो वह, तथा (2) अर्थ अर्थ से युक्त ही जो प्रयोजनरूप हो वह अर्थिक, श्रुत--श्रुतज्ञान / पुज्जसत्थे तीन रूप : तीन अर्थ—(१) पूज्यशास्त्र—जिसका शास्त्रीय ज्ञान जनता में पूज्य-सम्माननीय होता है, (2) पूज्यशास्ता-जो अपने शास्ता--गुरु को पूज्य--पूजायोग्य बना देता है, अथवा वह स्वयं पूज्य शास्ता (प्राचार्य या गुरु अथवा अनुशास्ता) बन जाता है, (3) पूज्यशस्त-स्वयं पूज्य एवं शस्त-प्रशंसनीय (प्रशंसास्पद) बन जाता 'मणोरई चिट्ठइ'-की व्याख्या-गुरुजनों के विनय से शास्त्रीय ज्ञान में विशारद शिष्य उनके मन में प्रीतिपात्र (रुचिकर) होकर रहता है / 1. उत्तराध्ययनसूत्र मूल, अ.१, गा. 45 से 48 तक 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 66 3. वही, पत्र 66 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org