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________________ उत्तराध्ययनसूत्र को आग्रह करते, परन्तु वे भिक्षा में पूर्ण नीरस आहार लाते और कहते- "भंते ! हम क्या करें ? यहाँ के श्रावक लोग अच्छा आहार देते ही नहीं, वे विवेकहीन हैं।" उधर श्रावक लोगों के द्वारा सरस आहार लेने का आग्रह करने पर साधु उन्हें कहते—“प्राचार्य शरीर-निर्वाह के प्रति अत्यन्त निरपेक्ष हो गए हैं, अब वे सरस, स्निग्ध आहार नहीं लेना च वे सरस, स्निग्ध आहार नहीं लेना चाहते। वे यथाशीघ्र संलेखना करना चाहते हैं।" यह सुन कर श्रद्धालु भक्त श्रावकों ने पाकर सविनय प्रार्थना की-"भगवन् ! आप भुवनभास्कर तेजस्वी परोपकारी प्राचार्य हैं / आप हमारे लिए भारभूत नहीं हैं। हम यथाशक्ति आपकी सेवा के लिए तत्पर हैं / आपकी सेवा करके हम स्वयं को धन्य समझते हैं / अापके शिष्य साधु भी अापकी सेवा करना चाहते हैं, वे भी आपसे क्षब्ध नहीं हैं। फिर आप असमय में ही संलेखना क्यों कर रहे हैं ?" इंगितज्ञ प्राचार्य ने जान लिया कि शिष्यों की बुद्धि विकृत होने के कारण ऐसा हया है। अतः अब इस अप्रीतिहेतुक प्राण-धारण से क्या प्रयोजन है ? धर्मार्थी पुरुष को अप्रीति उत्पन्न करना उचित नहीं / अतः वे तत्काल श्रावकों से कहते हैं--'मैं स्थिरवासी होकर कितने दिन तक इन विनीत साधुओं और आप श्रावकगण को सेवा में रोके रखूगा? अत: श्रेष्ठ यही है कि मैं उत्तम अर्थ को स्वीकार करूं।" इस प्रकार श्रावकों को समझाकर आचार्य ने अनशन कर लिया। यह है आचार्य को अपनी दुश्चेष्टाओं से अनशन आदि के लिए बाध्य करने वाले बुद्धोपघाती शिष्यों का दृष्टान्त !' तोत्तगवेसए--तोत्त-तोत्र का अर्थ है जिससे व्यथित किया जाए / द्रव्यतोत्र चाबुक प्रहार आदि हैं और भावतोत्र हैं -दोषोद्भावन, तिरस्कार युक्त वचन, व्यथा पहुंचाने वाले वचन अथवा छिद्रान्वेषण आदि / पत्तिएणं--दो रूप—प्रातीतिकेन, प्रीतिकेन / इनके अर्थ क्रमश: शपथादि पूर्वक प्रतीतिकारक वचनों से एवं प्रीति-शान्तिपूर्वक हार्दिक भक्ति से / ' विनीत को लौकिक और लोकोत्तर लाभ 45. नच्चा नमइ मेहावी लोए कित्ती से जायए। ___ हवई किच्चाणं सरणं भूयाणं जगई जहा // [45.] पूर्वोक्त विनयसूत्रों (या विनयपद्धतियों) को जान कर जो मेधावी मुनि उन्हें कार्यान्वित करने में विनत हो (झक-लग) जाता है, उसकी लोक में कीर्ति होती है। प्राणियों के लिए जिस प्रकार पृथ्वी ग्राश्रयभूत (शरण) होती है, उसी प्रकार विनयी शिष्य धर्माचरण (उचित अनुष्ठान) करने वालों के लिए प्राश्रय (प्राधार) होता है / 46. पुज्जा जस्स पसीयन्ति संबद्धा पुग्यसंथया। पसन्ना लाभइस्सन्ति विउलं अद्वियं सुयं // [46.] शिक्षण-काल से पूर्व ही उसके विनयाचरण से सम्यक् प्रकार से परिचित (संस्तुत), 1. (क) उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 42 (ख) बृहदवत्ति, पत्र 62-63 2. (क) उत्तराध्ययनणि, पृ. 42 (ख) बृहदृवृत्ति, पत्र 62 3. वृहद्वत्ति, पत्र 63. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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