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________________ प्रथम अध्ययन : विनयसूत्र] [23 41. आयरियं कुवियं नच्चा पत्तिएण पसायए / विज्झवेज्ज पंजलिउडो वएज्ज 'न पुणो' ति य / / 41.] (अपने किसी अयोग्य व्यवहार से) आचार्य को कुपित हुआ जान कर विनीत शिष्य प्रतीति (-प्रीति-) कारक वचनों से उन्हें प्रसन्न करे; हाथ जोड़ कर उन्हें शान्त करे और कहे कि 'फिर कभी ऐसा नहीं करूंगा।' 42. धम्मज्जियं च ववहारं बुद्ध हायरियं सया। तमायरन्तो ववहारं गरहं नाभिगच्छई // 42.] जो व्यवहार धर्म से अजित है और प्रबुद्ध (तत्त्वज्ञ) प्राचार्यों द्वारा प्राचरित है, सदैव उस व्यवहार का आचरण करता हुआ मुनि कहीं भी गर्दा को प्राप्त (निन्दित) नहीं होता। 43. मणोगयं वक्कगयं जाणित्ताऽऽयरियस्स उ। तं परिगिज्म वायाए कम्मुणा उववायए / [43.] प्राचार्य के मनोगत और वाक्य (वचन)-गत भाव को जान कर शिष्य उसे (सर्वप्रथम) वाणी से ग्रहण (स्वीकार) करके, (फिर उसे) कार्यरूप में परिणत करे। 44. वित्त प्रचोइए निच्चं खिप्पं हवइ सुचोइए। __ जहोबइठे सुकयं किच्चाई कुम्बई सया // [44. (विनयीरूप से) प्रसिद्ध शिष्य (गुरु द्वारा) प्रेरित न किये जाने पर भी कार्य करने के लिए सदा प्रस्तुत रहता है, अच्छी तरह प्रेरित किये जाने पर तो वह तत्काल उन कार्यों को सदा यथोपदिष्ट रूप से भलीभांति सम्पन्न कर लेता है। विवेचन-रमए ---अभिरतिमान्, प्रीतिमान् या प्रसन्न होता है / सासं-दो अर्थ-(१) आज्ञा देता हुआ, (2) प्रमादवश स्खलना होने पर शिक्षा देता हुआ। खड्डया-तीन अर्थ-(१) ठोकर (2) लात (3) टक्कर मारना / ' बुद्धोपघाई-बुद्धों-आचार्यों के उपघात के तीन प्रकार हैं--(१) ज्ञानोपघात-यह प्राचार्य अल्पश्रुत है या ज्ञान को छिपाता है, (2) दर्शनोपघात -यह प्राचार्य उन्मार्ग की प्ररूपणा या उसमें श्रद्धा करता है, (3) चारित्रोपघात --यह प्राचार्य कुशील है या पार्श्वस्थ (पाशस्थ) है, इत्यादि प्रकार से व्यवहार करने वाला प्राचार्य का उपघाती होता है / अथवा जो शिष्य प्राचार्य की वृत्ति (जीवनयात्रा) का उपघात करता है, वह भी बुद्धोपघाती है। उदाहरण-कोई वृद्ध गणिगुणसम्पन्न प्राचार्य विहार करना चाहते हुए भी जंघावल क्षीण होने के कारण एक नगर में स्थिरवासी हो गए / वहाँ के श्रावकगण भी अपना अहोभाग्य समझ कर उनकी सेवा करते थे / किन्तु प्राचार्य को दीर्घजीवी देख गुरुकर्मा शिष्य सोचने लगे-हम लोग कब तक इन अजंगम (अगतिशील) की परिचर्या करते रहेंगे? अतः ऐसा कोई उपाय करें, जिससे प्राचार्य स्वयं अनशन कर लें। वहाँ के श्रावकगण तो प्रतिदिन सरस आहार लेने के लिए भिक्षा करने वाले साधुओं 1. बृहद्वृत्ति , पत्र 62 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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