________________ 26] [उत्तराध्ययनसूत्र कम्मसंपया-बृहद्वत्ति के अनुसार दो अर्थ-(१) कर्मसम्पदा-दशविध समाचारी रूप कर्म-क्रिया से सम्पन्न और (2) योगजविभूति से सम्पन्न / समाचारीसम्पन्नता का प्रशिक्षण-प्राचीनकाल में क्रिया की उपसम्पदा के लिए साधुओं की विशेष नियुक्ति पूर्वक उत्तराध्ययनसूत्र के 26 वें अध्ययन में वर्णित दशविध समाचारी का प्रशिक्षण दिया जाता था और उसकी पालना कराई जाती थी। योगविभूतिसम्पन्नता की व्याख्या-चणि के अनुसार अक्षीणमहानस आदि लब्धियों से युक्तता है, बृहद्वृत्ति के अनुसार-श्रमणक्रियाऽनुष्ठान के माहात्म्य से समुत्पन्न पुलाक आदि लब्धिरूप सम्पत्तियों से सम्पन्नता है। 'मणोरुई चिट्ठइ कम्मसंपया इसे एक वाक्य मान कर बृहद्वत्ति में व्याख्या इस प्रकार की गई है-कर्मों की-ज्ञानावरणीय प्रादि कर्मों को उदय-उदीरणारूप विभूति-कर्मसम्पदा है, इस प्रकार की कर्मसम्पदा अर्थात् कर्मों का उच्छेद करने की शक्तिमत्ता में जिसकी मनोरुचि रहती है / अथवा 'मणोरुहं चिइ कम्मसंपयं' पाठान्तर मान कर इसकी व्याख्या की गई है—विनय मनोरुचित फल-सम्पादक होने से वह मनोरुचित (मनोवांछित) कर्मसम्पदा (शुभप्रकृतिरूप-पुण्यफलरूप) का अनुभव करता रहता है।' मलपंकपुटवयं-दो अर्थ-(१) प्रात्मशुद्धि का विघातक होने से पाप-कर्म एक प्रकार का मल है और वही पंक है / इस शरीर की प्राप्ति का कारण कर्ममल होने से वह भावतः मलपंकपूर्वक है, (2) इस शरीर की उत्पत्ति माता के रज और पिता के वीर्य से होती है, माता का रज-मल है और पिता का वीर्य पंक है, अतः यह देह द्रव्यतः भी मल-पंक (रज-वीर्य) पूर्वक है / अप्परए-दो रूपः दो अर्थ (1) अल्परजाः--जिसके बध्यमान कर्म अल्प हैं, (2) अल्परत-- जिसमें मोहनीयकर्मोदयजनित रत-क्रीड़ा का अभाव हो।' ॥प्रथम : विनयसूत्र अध्ययन समाप्त // 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 66 (ख) उत्तराध्ययनणि, पृ. 44 2. बृहद्वत्ति, पत्र 67 (क) 'मानोउयं पिउसुक्क ति वचनात् रक्तशुक्र एव मलपंको तत्पूर्वक मलपकपूर्वकम् / ) अप्परएत्ति-अल्पमिति अविद्यमान रतमिति क्रीडितं मोहनीयकर्मोदयजनितमस्य अल्परतो लवसप्तमादिः, अल्परजाः वा प्रतनुबध्यमानकर्मा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org