________________ 14] [उत्तराध्ययनसूत्र दुद्दमो का अर्थ-दुर्जय है, क्योंकि आत्मा (इन्द्रिय-मन) को जीत लेने पर दूसरे सब (बाह्य दमनीयों) पर विजय पाई जा सकती है / दान्त आत्मा उभयत्र सुखी-दान्त आत्मा मषिगण इस लोक में भी सर्वत्र पूजे जाते हैं, सुखी रहते हैं और परलोक में भी सुगति या मोक्षगति पा कर सुखी होते हैं। आत्मदमन ही श्रेष्ठ–आत्मदमन, संयम और तप के द्वारा स्वेच्छा से इन्द्रिय और मन को रागद्वेष से बचाना है, जो अपने अधीन है, किन्तु परदमन में परतंत्रता है, प्रतिक्रिया है, रागद्वेषादि के कारण मानसिक संक्लेश भी है।' _सेचनक हाथी का दृष्टान्त--यूथपति द्वारा अपने बच्चे को मारे जाने के भय से एक हथिनी ने तापसों के आश्रम में गजशिशु का प्रसव किया। वह ऋषिकुमारों के साथ-साथ आश्रम के बगीचे को सींचता था, इसलिए उसका सेचनक नाम रख दिया। जवान होने पर यूथपति को मार कर वह स्वयं यथपति बना। उसने आवेश में पा कर आश्रम को भी नष्ट भ्रष्ट कर डाला। श्रेणिक राजा के पास तापसों की फरियाद पहुंची तो वह सेचनक हाथी को पकड़ने के लिए निकला / एक देवता ने देखा कि श्रेणिक इसे अवश्य पकड़ेगा और बन्धन में डालेगा। अतः देवता ने उस हाथी के कान में कहा–'पुत्र! श्रेणिक तुझे बन्धन में जकड़े और मारपीट कर ठीक करे, इसको अपेक्षा तू स्वयं अपने आपका दमन कर ले।' यह सुन कर वह हाथी रात को ही श्रेणिक राजा की हस्तिशाला में पहुँच गया और खंभे से बन्ध गया। इसी प्रकार मोक्षार्थी विनीत साधक को तपसंयम द्वारा स्वयं विषयकषायों का शमन (दमन) करना श्रेयस्कर है, विशिष्ट सकामनिर्जरा का कारण है। दूसरों के द्वारा दमन से अकामनिर्जरा ही होगी। अनाशातना-विनय के मूलमंत्र 17. पडिणीयं च बुद्धाणं, वाया अदुव कम्मुणा। आवी वा जइ वा रहस्से, नेव कुज्जा कयाइ वि // [17.] प्रकट में (लोगों के समक्ष) अथवा एकान्त में वाणी से अथवा कर्म से कदापि प्रबुद्ध (तत्त्वज्ञ) प्राचार्यों के प्रतिकूल आचरण नहीं करना चाहिए। 18. न पक्खओ न पुरओ, नेव किच्चाण पिट्ठओ। न जुजे ऊरुणा ऊरु, सयणे नो पडिस्सुणे / / [18.] कृत्यों (वन्दनीय प्राचार्यादि) के बराबर (सट कर) न बैठे, आगे और पीछे भी (सट कर या विमुख हो कर) न बैठे, उनके (अतिनिकट) जांघ से जांघ सटा कर (शरीर से स्पर्श हो, ऐसे) भी न बैठे। बिछौने (शयन) पर (बैठा-बैठा) ही (उनके कथित आदेश को) श्रवण, स्वीकार न करे (किन्तु प्रासन छोड़ कर पास आकर स्वीकार करे)। 19. नेव पल्हत्थियं कुज्जा, पक्खपिण्डं व संजए / __ पाए पसारिए वावि, न चिठे गुरुणन्तिए // 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 33 2. वही, पत्र 50 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org