________________ प्रथम अध्ययन : विनयसूत्र विनीत का वाणीविवेक (वचनविनय) 14. नापुट्ठो वागरे किंचि, पुट्ठो वा नालियं वए। कोहं असच्चं कुब्वेज्जा, धारेज्जा पियमप्पियं // [14. (विनीत शिष्य) (गुरु के) विना पूछे कुछ भी न बोले; पूछने पर असत्य न बोले / (कदाचित्) क्रोध (पा भी जाए तो उस) को निष्फल (असत्य-अभावयुक्त) कर दे। (गुरु के) प्रिय और अप्रिय (वचन या शिक्षण) दोनों को धारण करे, (उस पर राग और द्वेष न करे) / विवेचनकोहं असच्चं कुब्वेज्जा—गुरु के द्वारा किसी अपराध या दोष पर अत्यन्त फटकारे जाने पर भी क्रोध न करे। कदाचित् क्रोध उत्पन्न भी हो जाए तो उसे कुविकल्पों से बचा कर विफल कर दे / यह इस पंक्ति का प्राशय है। कुलपुत्र का दृष्टान्त–एक कूलपूत्र के भाई को शत्र ने मार डाला। उसकी माता ने जोश में आकर कहा-पुत्र ! भ्रातृघातक को मार कर बदला लो। वह उसे खोजने गया। बहुत समय भटकने के बाद अपने भाई के हत्यारे को जीवित पकड़ लाया और माता के समक्ष उपस्थित किया। शत्रु उसकी माता की शरण में आ गया। कुलपुत्र ने पूछा-'हे भ्रातृघातक ! तुझे कैसे मारू ?' शत्रु ने गिड़गिड़ाकर कहा-'जैसे शरणागत को मारते हैं।' इस पर उसकी मां ने कहा-पुत्र ! शरणागत को नहीं मारा जाता / ' कुलपुत्र बोला-'फिर मैं अपने क्रोध को कैसे सफल करू ?' माता ने कहा-'बेटा ! क्रोध सर्वत्र सफल नहीं किया जाता। इस क्रोध को विफल करने में ही तुम्हारी विशेषता है।' उसने शत्रु को छोड़ दिया / ' प्रात्मदमन और परदमन का अन्तर एवं फल 15. अप्पा चेव दमेयन्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो। अप्पा दन्तो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य // [15.] अपनी आत्मा का ही दमन करना चाहिए, क्योंकि आत्मा का दमन ही कठिन है। दमित प्रात्मा ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है। 6. वरं मे अप्पा दन्तो, संजमेण तवेण य / ___ माहं परेहि दम्मन्तो. बन्धणेहि वहेहि य // [16.] (शिष्य आत्मविनय के सन्दर्भ में विचार करे---) अच्छा तो यही है कि मैं संयम और तप (बाह्य-ग्राभ्यन्तर) द्वारा अपना आत्मदमन करू; बन्धनों और वध (ताड़न-तर्जन-प्रहार आदि) के द्वारा मैं दूसरों से दमित किया जाऊँ, यह अच्छा नहीं है। विवेचन-अप्पा चेव दमेयव्यो—ात्मा शब्द यहाँ इन्द्रियों और मन के अर्थ में है / अर्थात्मनोज्ञ-अमनोज्ञ (इष्ट-अनिष्ट) विषयों में राग और द्वेष के वश दुष्ट गज की तरह उन्मार्गगामी इन्द्रियों और मन का स्वयं विवेकरूपी अंकुश द्वारा उपशमन (दमन) करे / 1. (क) वृहद्वृत्ति, पत्र 49 (ख) वही, पत्र 49 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org