________________ तृतीय अध्ययन : वन्दन] [25 पास उकडू अर्थात् गोदुहासन से बैठकर प्रथम के तीन पावर्त 'अहो-कार्य-काय' पूर्वोक्त विधि के अनुसार करके 'संफासं' कहते हुए गुरु-चरणों में मस्तक लगाना चाहिये। तत्पश्चात् 'खमणिज्जो भे किलामो' पाठ के द्वारा चरण-स्पर्श करते समय गुरुदेव को जो बाधा होती है, उसकी क्षमा मांगी जाती है / तदनन्तर 'अप्पकिलंताणं वहुसुभेण भे दिवसो वइक्कतो?' कहकर दिवस संबंधी कुशलक्षेम पूछा जाता है / फिर गुरु भी 'तथा' कहकर अपने शिष्य का कुशलक्षेम पूछते हैं। अनन्तर शिष्य ‘ज ता भे' 'जव णि' 'ज्जं च भे-इन तीनों आवतों की क्रिया करे एवं संयम-यात्रा तथा शरीर संबंधी शांति पूछे / उत्तर में गुरुदेव भी शिष्य से उसकी यात्रा और यापनीय सन्बन्धी सुख-शान्ति पूछे / इसके बाद 'आवस्सियाए' कहते हुए अवग्रह से बाहर आना चाहिये / प्रस्तुत पाठ में जो 'वहसूभेणं भे दिवसो वइक्कतो' में 'दिवसो व इवकतो' पाठ है, उसके स्थान में रात्रि-प्रतिक्रमण के समय 'राई वइक्कंता', पाक्षिक प्रतिक्रमण में 'पक्खो वइक्कतो,' चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में 'चाउम्मासी व इक्कता' तथा सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में 'संवच्छरो वइवकतो' ऐसा पाठ बोलना चाहिए। समवायांग सूत्र के १२वें समवाय में वन्दन के स्वरूप का प्ररूपण करते हुए भगवान् महावीर ने वन्दन की 25 विधियां बतलाई हैं दुओणयं जहाजायं, कितिकम्म बारसावयं / चउसिरं तिगुत्तं च, दुपवेसं एग निक्खमणं / अर्थात-दो अवनत, एक यथाजात, बारह आवर्त, चार शिर, तीन गुप्ति, दो प्रवेश और एक निष्क्रमण- इस प्रकार कुल पच्चीस आवश्यक हैं। आवश्यक-क्रिया में तीसरे वन्दन आवश्यक का महत्त्वपूर्ण स्थान है। गुरुदेव को विनम्र हृदय से वन्दन करना तथा उनकी दिन तथा रात्रि सम्बन्धी सुख-शान्ति पूछना शिष्य का परम कर्तव्य है, क्योंकि अरिहन्तों के पश्चात् गुरुदेव ही आध्यात्मिक साम्राज्य के अधिपति हैं, उनको वन्दन करना भगवान को वन्दन करने के समान है। वन्दन करने से विनम्रता पाती है। प्राचीन भारत में प्रस्तुत विनय के सिद्धान्त पर अत्यधिक बल दिया गया है। कहा भी है—विणयो जिणसासणमूलम्' अर्थात् विनय जिनशासन का मूल है। जैनसिद्धान्तदीपिका में कहा है-..'अनाशातना बहुमानकरणं च विनयः / ' अशातना नहीं करना तथा बहुमान करना विनय है। विशिष्ट शब्दों का अर्थ-जावणिज्जाए-शक्ति की अनुकलता से, शक्ति के अनुसार / निसोहियाए सावध व्यापार की निवृत्ति से / अणुजाणह–अनुमति दीजिये / मिउग्गह---मितप्रवग्रह अर्थात् गुरु महाराज जहाँ विराजमान हों, उसके चारों ओर की साढे तीन हाथ चौड़ी भूमि / अहो कायं-अधःकाय-- शरीर का भाग, चरण / कायसंफासं-काय अर्थात् हाथ से, (चरणों का) सम्यक स्पर्श / खमणिज्जो-क्षमा के योग्य / भे—आपके द्वारा / अप्पकिलंताणं-शारीरिक श्रम या बाधा से रहित / 'अप्प' (अल्प) शब्द यहाँ 'अभाव' का वाचक है / वइक्कतो-व्यतीत हुआ / जत्ता-- संयम रूप यात्रा / जवणिज्जं--(यापनीयम्) इन्द्रियादि की बाधा से रहित / बइक्कम अतिचार / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org